पृष्ठ:सूरसागर.djvu/५७५

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(९८२) सूरसागर। प्यारी विजय सखा मिलाउ॥ रुचि वाचारनमान कीजै सोई किन वहि जाउ । सुर प्रभुकी शरन रहिहौं सकल त्रिभुवन राउ ॥११॥ सारंग ॥ करिगए थोरे दिनकी प्रीति । कहां वह प्रीति कहां यह विठुरन कहां मधुवनकी रीति । अबकी बेर मिलौ मन मोहन बहुत भई विपरीति । कैसे प्राणं रहत दरशन विन मनहुँ गए युगवीत ॥ कृपा करहु गिरिधर हम ऊपर प्रेम रह्यो तनु जीति । सुर दास प्रभु तुम्हरे मिलन विना भई भुसपरकी भांति ॥१२॥धनाश्री|प्रीति कार दीनी गरे छुरीजैसे व धिक चुगाइ कपटकन पीछे करत बुरी॥ मुरली अधर चंप कर कापा मोर मुकुट लट वारि।। बंक विलोकनि लगी लोभ सम सकति नपंख पसारि ॥ तरफत छाँडि गए मधुवनको वहरि न कीनी सार।सूरश्याम सुख संग कल्पतरु उलटि नबैठी डार ॥१३॥मलागादेखिमाधौकी मित्राई। आई उघरि कनक कलईसी दैनिज गए दगाई । हम जानै हरिहितू हमारे उनके चित्त ठगाई ॥ छाँडी सुरति सबै ब्रजकुलकी निठुर लोग भए माई ॥ प्रेम निवाहि कहा.वै जानैं साँचे अतिही राई । सूरदास विरहिनी विकलमति करमीजै पछिताई॥१॥एकहि वेरदई सव टेरी।तब कत डोरि. लगाइ चोरि मनु मुरली अधर धरि टेरी ॥ वाट घाट वीथी ब्रज पर बन संग लगाए फेरी। तिनकी यह करि गए पलक में पारि विरहदुख वेरी। जो परि चतुर सुजान कहावत कही समु झियो मेरी।बहुरि न सूर पाइ हो हमसी विनदामनकी चेरी ॥१६॥ नट ॥ अवतौ ऐसेई दिन मेरोक हा करौ सखि दोष न काहू हरिहित लोनन फेरे।। मृगमद मलय कपूर कुमकुमा एसव संतत चेरे। मादप वन शशि कुसुम सकोमल तेउ देखियत जुकरेरे ॥ वन बन वसत मोर चातक पिक आपुन दिए वसेरे । अब सोइ वकृत जाहि जोइ भाव वर जे रहत न मेरे ॥ जे तुम सींचि साँचि अपने कर कियो वढाय बडेरे। तिन मुनि सूर किसल गिरि वर भए आनि नैन मग घेरे ॥ १६॥. ॥सारंगविनु गोपाल वैरिनि भई कुंजीजे वै लता लगत तनु शीतल अब भई विषम अनलकी पुंज। वृथा बहुत यमुनातट खगरो वृथा कमलफूलनि अलि गुंजीपवन पानि घनसारि सुमन दै दधिसुत किरिन भानु भै भुज।।एउधो कहियो माधो सों मदन मार कीन्हीं हम लुजें । सूरदास प्रभु तुम्ह रे दरशको मग जोवत अँखियन भई धुंज ॥१७॥कान्हरोकरकपोल भुज धरि जंघापर लेखति माई नख्न की रेखनि । सोचति विचार करति वैसी भाँति धरति ध्यान मदन मुख भेजनि ।। नैन नीर भीर भरि जु लेत है गोपी धृग दिन जात अलेखानि । कमल नैन माधो मधुपुरी सिधारे जाके गुणन जाने सहसफन शेषनि ॥ अवधि छुडाइ सुनीरी सजनी क्यों जीवहि निशिदामिनि देखनि। सूरदास प्रभु चटक गए ज्यों नाना विधि नाचत नट पेखनि ॥१८॥कान्हग। सोचति राधा लिखति । नखनमें वचनन कहत'कंठ जलतास । छतिपर कमल कमल पर कदली पंकज कियो प्रकाश ॥ तापर अलि सारंग पर सारंग प्रति सारंग रिपुलै कियो वास । तहां अरिपथ पिता युग उदितवारि ज विविध रंग भजो अभास। सारंग मुखते परत अंदार मन शिव पूजति तपति विनासासूरदास प्रभु हरि विरहा रिपु दाहत अंग दिखावत वास १९॥नया में सब लिखिसोभा जु बनाई सजल जलद तन वसन कनक रुचि उर बहुदाम रुराई।उन्नतकंध कटि खीन विशदभुज अंग अंग प्रति सुखदाई। सुभग कपोल नासिका नैन छवि अलक लिहित धृतपाईजानति हीय हलोल लेख करि. ऐसहि दिन . विरमाई।सूरदास मृदु वचन श्रवणको अति आतुर अकुलाई॥२०॥ गौरी।सुरति करि वहांकीवात रोई : दियो। पंथी एकु देखि मारगमें राधा बोल लियो। कहिधौं वीर कहांते आयोहम जुप्रणाम कियो। पालागों मंदिर पगु धारौ सुनि दुख यानं त्रियोगद गद कंठ हियो भार आयो वचन कह्यों नदियो। सूरश्याम अभिराम ध्यान मन भर भर लेत.हियो२१॥मलार। कहियो पथिक जाइ हरिसों मेरो मन ..