पृष्ठ:सूरसागर.djvu/५७७

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सूरसागर।. . (४८४) स्वामी तिहि अवसर पुनि पुनि प्रगट करावते ॥३१॥ सारंगा नाहं विसरति वह रति ब्रजनाथ । हौं जुरही हठि रूठि मौन धरि सुखही में खेलत इक साथ ॥ पचिहारे मैं मनायो नमानौं आपुन चरण छुए हरि हाथ । तब रिस धरि सोई उत सुख करि झुकि झाँक्यो उपरैना माथ ॥ रह्योन पर सुप्रेम, आतुर अति जानी रजनी जात अकाथ । सूरश्यामहौं ठगी महा निशि पढि जुसुनाए प्रातके गाथ ॥३२॥बिलावल|| माधौ इतने जतन तब काहे को किए। अपने जान जानि नदनंदन अनेक भयनसों राखि लिए ॥ अप बक वृषभ वच्छ वधनते व्याकुल जीति दावानलहि पिए । इंद्र मान मेटि गिरिकरधरि छिन छिन प्रति आनंद हिए ॥ हरि विछुरत की पीर नजानी वचन मानि हम वादि जिए। सूरदास अब वा लालन विन कहा न सहत एकठिन हिए ॥३३॥ गौरी ॥ यह कुमया जो तवहीं करते। तौ कत इन ये जिवत आजु लौं या गोकुलके लोग उवरते ॥ केशी तृणावर्त वृषभासुर कहौ कौनके मारे मरते । भूम प्रलंब व्याल दावानल हरि विन वर जिहिनिघाइनि वरते । शंखचूडवक वकी अघासुर पतिवरुनकौनते डरते है सूरश्याम तौ घोप कहातौ जो तुम इती निठुराई धरते ॥३९॥ मलार ॥ हार हम तब काहेको राखी । जब सुरपति नन । वोरन लीनो दियो क्यों न गिरि नाखी ॥ अबलौं हमारी- जगमें चलती नई पुरानी साखी । सो क्यों झूठो होय सखीरी गर्ग कथा सो भाषी ॥ तो हमको होती कत यह गति निशि दिन वर्षत आषी । सुरदास यों भई फिरत ज्यों मधु दुहेकी माषी ॥३५॥ हरिजू वै सुख वहरि कहां यदपि नैन निरखत वह मूरति फिरि मन जात तहां । मुख मुरली शिर मोरपंखवने उर घुघुचनि कोहारु । आगे धेनु रेनु तनु मंडित चितवनि तिरछी चारु॥राति दिवस अंग अंग अपने हित हँसि मिलि खेलत खातामर देखि वा प्रभुता उनकी कही न आवै बात ॥३६॥ सारंग ॥ मधुवन तुम क्यों रहत हरी। विरह वियोग श्याम सुंदरके गढी क्यों न जरी ॥ तुमही निलज न लजा तुमको फिर शिर पुहुपधरी। सुसा सियार अरु वनके पखेरू धृग धृग सबन करी ॥ कौनकाज ठाढी रही वनमः । काहे न उकठपरी । कपट हेतु कियो हरि हमसे खोटे होहिं खरी॥ गोविंदगुण उरते नहिं विसरत रचि रचि कुसुम भरी । विन देखे वा नँदनंदनको फिरि फिरि फिरि नफिरी .जब वे मोहन वेणु. बजावत शाखाटेक खरी । मोहे थावरु अरु जड जंगम मुनि गन ध्यान टरी॥ विछुरतः हियो बलि. मोहनके केउ न कल्याण करी । सुख संपति विछुरी मोहनकी फल फूलनों करी ॥ नैननते. . विछुरे नंदनंदन चितते नहीं टरी। सूरदास प्रभु विरह दवानल नखशिखलौं पसरी॥३७॥ केदारो।।। जो सखी नाहिंन ब्रजश्याम । वर्षत होत पल सम अब सुयुग वरयामः ॥ उहै गोकुल लोग वेई उहै यमुनाठाम । उहै गृह जिहि सकल संपति वनभयो सोइ धाम ॥ उहै रति पति अछत मुरा रिहि लेन सकतो नाम । सूर प्रभु विनु अब कलेवर दहन लागे काम ॥३८॥ नैतश्री ॥ हरि नमिले. नमाईरी जनम ऐसेही लागो जान । चितवत मग दिवस निशा जात युग समान। चातक पिक: वचन सखी सुनि न परतकान । चंदन अरु चंद किरनि मानो अनेक भान ॥ भूषण तनु पोत तज्यो रन आतुर बान । भीषमलौं सहत मदन अर्जुनके धान ॥ सोपति तनुसेज सूर चले न चपल प्रान । दक्षिण रवि अवधिः अटक इतनी जिय आन ॥३९॥ सारंग ॥ अब योही लागे दिन जान। सुमिरत प्रीति लाज लागतिहै उर भयो कुलिश समान॥ लोचन रहत वदन विनुः देखे वचन सुने | विनु कान। हृदय रहत हरि पान परस विन छिदितनमनसिज वान ॥ मानो सखी रहे नहि " मेरे वै पाहिले तनु प्राण । विधि समेतरचि चले नंदसुत विरह व्यथादै आन ॥ विधि वछेहरे और