पृष्ठ:सूरसागर.djvu/५८१

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(४८८) . सूरसागर। . .... .... AL..- नैननकी सुधि लीजै । गोपी गाइ . ग्वाल गोसुत सब दीन मलीन दिनहि दिनछांजे ॥ | नैन सजल जलधारं बढे अति बूडत ब्रजांकन करगाह लीजै । इतनी विनती सुनह हमारी. वारकह पतिआं लिख दीजै ॥चरण कमल दरशन नवं नौका करुणासिंधु जंगतं यश लीजै। सूरदास प्रभु आश मिलनकी एकवार आवन ब्रजकीजै ॥६८॥ केदारो।। मेरे नयना विर हकी बेलि वई। सीचत नीर नैनके सजनी मूल पताल गई। विकसत लता सुभाइ आपने छाया सपन भई । अब कैसे निरुवारों सजनी सब तन पसरि छई ॥ को जानै काइके जियकी छिन छिन होत नई । सूरदास स्वामीके विछुरे लागे प्रेम झई ॥६९॥ देवगंधार ॥ ब्रज वसि काके बोल सहौं। इह लोभी नैननके काजे परवश भई जो रहौं ॥ विसरि लाज गई सुधि नहिं तनुकी अवधौं कहा कहाँ । मेरे जियमें ऐसी आवत यमुना जाई.बहौं । एक वन ढूंढ सकल वन (न्यो कबहुँ नश्याम लहौं।सूरदास प्रभु तुम्हरे दरशको इह दुख अधिक सहौं।।७०॥ केदारो ॥ नैना अव लागे पछितान । विछुरत उमॅगि नीर भार आई अब नं कछू अवसान ॥ तब मिलि मिलि कत प्रीति बढावत अब सो भई विषवान ॥ तबतौ प्रीति करी उत्तर होइ समुझी कछु न अंजान । अव इह काम दहत निशि वासर नाहीं मेरे नाम ॥ भयोविदेश मधुपुरी हमको क्यों होत नजान ।। आति चटपटी देखि वे चाहत अब लागी अकुंलान । सूरदास प्रभु दीन दुखित ए लै नगए सँग प्रान।। ७१॥ आसावरी ॥ हो तादिन कजरा मैं देहों । जादिन नँदनंदनके नैनन अपने नैन मिलहौं । सुनरी सखी इहै जिय मेरे भूलिन और चितैहौं।अब हठ सूर इहै व्रत मेरो कौंकिरपै मरि जैहौं७२॥ ॥ मलार ॥ उपमा नैनन एक रही। कविजन कहत कहत सब आए सुधि करि नाहिं कही कहि चकोर विधु मुख विन जीवत भंवर नहीं उडिजात । हरि मुख कमल कोश विठुरते ढोले कत.. ढहरात ॥ अघा वधिक व्याधढे आये मृगसम क्यों न पलात । भांजि जाहि बन सघन याममै जहां न कोऊ घात ॥ खंजन मनरंजन नहोहिं ए कवहीं नहीं अकुलात । पंख पसारि नहो छिन चपला गति हरि समीप मुकलात. ॥ प्रीति प्रेम नहोहि कौन विधि कहिए झूठेही तनु आडत. सूरदास मीनता कछू एक जल भरि कबहुँ नछांडत॥७३॥गौरी।कहा इन नैननको अपराधारसना रटत सुनत यश श्रवण इतनी अगम अगाध ॥ भोजन किये वितु भूख क्यों भाजे विनखाए संवं स्वाध । इकटक रहत छुटत नहि कबहूँ हरि देखनकी साध ॥ ये हग दुखी विना वह मूरति कहो कहा अब कीजै । एक वेर ब्रज आनि कृपाकरि सूर सोदरशन दीजै ॥ ७४॥ मलार ॥ चित. वतही मधुवन तन जात । नैननि नींद परति नाहिं सजनी सुनि सुनि बात मन अंकुलात ॥ अब ए भवन देखिअत सूनो धाइ धाइ हमको ब्रजखात । कवन प्रतीति करें मोहनकी जहि छाँडे निज जननी तातः ॥ अनुदिन नैन तपत. दरशन को हरदी समान देखिअंत गात । सूरदास स्वामीके विछुरे ऐसे भए हमारे धात।।७२ ।। मलार ।। देखसंखी उतहै वह गाँजहां वसत नंदलाल हमारे मोहन मथुरा नाउँ ॥ कालिंदीके कूल रहतहैं परम मनोहर ठाउँ। जो तनुपंख होइ सुन सजनी आजु अबंहि उडिजाउँहोनो होउ होउ सो अबहीं यहि ब्रज अन्न नखाउँ॥ सूरदास नँदनंदनसों रति लोगन कहा डराउँ.७६॥ गौरी ॥ मथुराके द्रुम देखिअत न्यारेविहाँ श्याम . हमारे प्रीतम चितवत लोचन हारे ॥ कितिक बीच संदेहु दुर्लभ सुनियत टेर पुकारे। तुवं गुण सुमिरि सुमुरि-हम मोहन मदन बान उरमारे। तुमविन श्याम सबै सुख भूलो गृह बन भए हमारे.. सूरदास प्रभु तुमरे दरश विनु रैंनि गर्नतं गए तारे॥७७॥स्वम दर्शन वर्णनं ॥ रागकेदारों । जबते विछरे