पृष्ठ:सूरसागर.djvu/६०४

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दशमस्कन्ध-२० (६१) समए । भटकत फिरत पात द्रुम वेलिन कुसुम करंज भए॥ सूर विमुख पद अंबुज छाँडै विपैनि विप वर छए ।नितश्री मधुकर काके मीत भए । दिवस चारि करि प्रीति सगाई रसलै अनतं गए ॥ डहकत फिरत आपने स्वारथ पाखंड अग्र दए । चाडसरै पहिचानत नाहिंन प्रीतम करत नए । मुंडउ वांटि मेलि वौराए मन हरि हरि जुलए । सूरदास प्रभु दूत धर्म ढिग दुखके बीज वए ॥ ८९ ॥सारंग ॥ मधुकर हम नहोहिं वै वेली । जिनभनि तजि तुम फिरत और रंग करत कुसुमरस केली ॥ वारते वर वारि वढी है अरु पोपी पिय पानि । विनु पिय परस प्रात उठि फूलत होति सदा हित हानि ॥ ए वेली विरहा वृंदावन उरझी श्याम तमाल । पुहुपवास रस रसिक हमारे विलसत मधुप गोपोल ॥ योग समीर धीर नहिं डोलत रूप डार ढिगलागी । सूर परागनि तजति हिएते श्रीगुपाल अनुरागी ॥ ९० ॥ मधुकर कहा पढ़ी यह रीति । लोक वेद श्रुतिपंथ रहित सव कथा कहति विपरीति ॥ जन्मभूमि व्रज सखी राधिका केहि अपराध तजी। अतिकुलीन गुणरूप अमित सुख दासी जाइ भजी ॥ योगसमाधि वेद गुण मारग क्यों समुझै युगवारि। जो 4 गुण अतीत व्यापकहै तोहि कहाहै प्यारि ॥ रहि अलि ढीठ कपट स्वारथ हित तजि बहुवचन विशेपि मन क्रम वचन वचति यहि नाते सूरश्याम तन देखि॥९॥मलार॥ मधुकर काहेको गोकुल आए। हम वैसीही सच अपनेमें दूने विरह जगाए ॥ हम जानतिहैं जिनहि पठाए श्याम सँदेशो ल्याए । जन्म जन्मके दूत तिरोवन कोनाह लार लगाए ॥ कहा करहि कहा जाहि सखीरी हरिविनु कछु न सोहाए । जन्म सुफल सूर तिनको जो काज पराए धाए ॥ ९२ ॥ मलार ॥ आए माई दुर्गश्यामके संगी। जे पहिले रंग रँगे श्यामरंग तिनहीकी बुधिरंगी ॥ हमरी उनकीसी मिलवतही ताते भए विहंगी। सूधी कहै सवन समुझावत ते सांचे सरवंगी ॥ औरनको सरवसु लै मारत आपुन भए अभंगी। सूर सुनाम शिलीमुख जे पीवें धन कवच उपंगी॥९३।।सखी वाक्य परस्पर मलारशाहकोऊ मधु बनते आयो । सुनो सुमति सव सखी सयानी हितकरि कान्ह पठायो।जा मोहन विछुरन ते गोकुल इतै दिवस दुख पायो । सोइहि कमलनैन करुणामय हृदही मांझ वतायो ॥ जो जहुँ योगी जतन करतहै नेकहु ध्यान न आयो । सो यह परमउदार मधुप व्रज वीथिन मांझ वहायो । अतिकृपालु आतुर अवलनिको व्यापक अंग गहायो। समुझि सूर सुख होत श्रवण सुनि नोत जुनिगमन गायो। ॥९॥ सारंग ॥ परी पुकार द्वार गृह गृहते सुनहु सखी इक योगी आयो । पवन सधावन भवन छो डावन नवल रिसाल गोपाल पठायो।आश अवध परम ऊरथ जो तिनहि कहा हितल्यायो । कनक वेलि कामिनि ब्रजवाला योग अग्नि देवेको धायो।भवभय हरन असुर मारन हित काल मधु पुरी आयो ॥ ब्रजमें यादव एकौ नाहीं काहेको उलटो सुयश हरायो॥ सुथल श्याम धाम में बैठो मृत अधिकार जनायो। सूर विसारि प्रीति सांवरे भली चतुरता जगत हसायो ॥९॥सारंग।। देन आए ऊधो मत नीको । आयोरी मिलि सुनहु सयानी लिए सुयशको टीको।तजन कहत अंवर आभूपण गेह नेह सुतहीको । अंग भस्म करि शीश जटाधरि सिखवत निर्गुण फीको ।। मेरे जान इहै युवति नको देत फिरत दुख पीको । ता शरापते भए श्याम तन तउ न गहत डर जीको ॥ जाकी प्रकृति परी जिय जैसी सोच न भली बुरीकोजोलगि सूर व्याल डसि भाजे सुख नहिं होत अमी को।।९६ ॥नटाऊधो तनक सुयश हरिको श्रवणन सुनि । कंचन काँच कपूर करररस सम दुख सुख गुण औ गुनानाम उनको सुनि गृह कुटुंवतजि जाइ बसत परकाननापरमहंस विहंग देखतहि आवत भिक्षा माँगन ॥ बालकपनको राउ संहारयो लोकलाज डरडारी । शूपनखाकी नाक निवारयो त्रियं वश