पृष्ठ:सूरसागर.djvu/६०५

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(६१२) सूरसागर ।::............ भए मुरासविलिसों बांधि-पताल पठायो कीन्हें यज्ञनि आई। सूर प्रीति जानी ते हरिकी कथातजी नहिं जाई॥९७॥सोरठा उधोश्याम सखा तुम सांचे ।की करिलियो स्वांग बीचहिते वैसेहि.लागत कांचे जैसी कहीहमहि आवतही औरन कहि पछितातोअपनो पति तजि.और वतावंत.मोहि मानि कछु खाते। तुरतं गमन कीजै मधुवनको इहां कहा यह ल्याए। सूर सुनत गोपिनकी वाणी ऊधो शीशनवाए ॥९८ ॥नयाऊधो वेगि मधुवन जाहाहम विरहिनी नारि हरि विन कौन करै निवाहु।तहीं दीजै मुरपरैना नको तुम कछु खाहु॥जो नहीं ब्रजमें विकानो नगर नारी साहासूर वै सव सुनत लैहैं जिय कहा पछिताहु ॥९॥धनाश्री।। ऊधो और कछू कहिवे कोमनमानै सोऊ कहि डारौ पाला- हम सुनि सहिवे को। यह उपदेश आजुलौं ऐसो कानन सुन्यो नदेख्यो। निरपत पटे कटुक.. अति जीरन चाहत मम उर लेख्यो । निशि-दिन बसत नेकहू न निकसत हृदयं मनोहर ऐन । याको इहां ठौर नाहिंन है लै राखों जहां चैन ॥ ब्रजवासी गोपाल उपासी हमसों वात छांडि । सूर योग धन राखु. मधुपुरी कुविजा के घर गाडि॥३०००॥नयाजाहु जाहु ऊधो जानेही पहिचानेहौ । जैसे हरितैसे तुम सेवक कपट चतुरई सानहो । निर्गुण ज्ञान कहा तुम पायो कौने सिखै ब्रज आनेहौ । यह उपदेश देहु लै कुविजहि जाके रूप लुभानेहौ ॥ कहां लगि कहौं योगको वातें वांचत नैन पिराने हौ । सूरदास प्रभु हमपर खोटी तुमतौ बारहवानेहौ ॥१॥ गौरी ॥ उधो जाहु तुमहि हम जाने । श्याम तुमहिं ह्यां.. को नहिं पठए तुमही वीच भुलाने ॥ ब्रजनारिन सों योग कहतही वात कहत न लजाने । बडे लों गन विवेक तुम्हारे ऐसे भए अयाने ॥ हमसों कही लई हम साहकै जिय गुणि लेहु सयाने। कहा ववला कहा दिशा दिगंबर मष्टकरौ पहिचाने ॥ सांच कहो तुमको अपनी सों बूझति वात निदाने । सूर श्याम जब तुमहिं पठायो तब नेकहु मुसकाने ॥२॥ रागगौरी ॥ . कहति कहा ऊधोसों तुम बौरी । जाको सुनत रहे हरिके दिग-श्याम सखा यह सोरी। कहा कहति रीमै पत्याति नहिं मुनि तुही कहा बनावति। हमको योग सिखावन आए यह तेरेमन आवति॥करनी भली भलेई जाने कुटिल कपटकी वानी। हरिको सिखाव नहीं रीमाई इह मन निहचै जानी।कहां शशी रस कहां योगघर इतने अंतर भाषतासूर सबै तुम भई वावरी याकी पति कहा राखता॥३॥. ॥ कान्हरो ॥ ऐसेही जन धूत कहावतामोको एक अचंभो आवत या वै कछु पावताावचन कठोरें कहत कहि दाहत अपनो महत गवाँवत । ऐसिउ प्रकृति परी कान्हाको युवतिन ज्ञान बतावत ॥ आपुन निलज रहत नख शिखलौं एतेपर पुनिगावत । सूर करत परशंसा अपनी हारेहु जीति कहावत ॥ ४॥ मलार ॥ ऐसे जन बेसरम कहावत । सोच विचार कहूँ इनके नहिं कहि डारत जो आवत ॥ अहिके गुण इनमें परिपूरण यामें कछू न पावत । लघुता हलत महति करियो हसि . नारिन योग बतावत।ब्रज हीन भए अब जैहै अनतह ऐसेहि गावत।।६॥कान्हो|प्रकृति जो जाके. "अंग परी । श्वान पूँछको कोटिक लागे सूधी कहुँ नकरी ॥ जैसे सुभक्ष नहीं भक्ष छडि जन्मत . जौन घरी । धोए रंग जात नहिं कैसेह-ज्यों कारी कमरी ॥ ज्यों अहि डसत उदर नहि पूरत ऐसी धरनि-धरी। सूर होइ सोहोइ सोच नहिं तैसेंहैं एऊरी ॥६॥सारंग। ऊधो होहु आगे ते न्यारे। तुमहि देखि तन अधिक जरतहै अरु नैननके तारे ॥ अपनो: योग सैंति धरि राखो यहाँ देत : कत-डारे । सो को जानत अपने मुखहै मीठे ते फल खारे ॥ हमरे गिरिधरके जु नाम गुण वसे कान्ह उरवारे। सूरदास हम सबै एक मत ए सव-खोटे कारे॥७॥ कल्याण ॥ जाहु जाहु आर्गत ॥ ऊधो पति राखति हौं तेरी । काहे को अब रोष दियावत देखति आँखि बरत हैं मेरी ॥ तुम जो