पृष्ठ:सूरसागर.djvu/६११

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(५१८) सूरसागर। . . . राते एक डार केसे तोरे ॥ यह सखी मैं पहिले कहि राखी असित न अपने होहीं। सूर कोटे जो माथो दीजै चलत आपनी गोहीं ॥ ५२ ॥ उधो प्रेम रहित योग निरस काहेको गायो। हम अवलनिको निठुर वचन कहे कहा पायो ॥ जिन नैनन कमलनैन मोहन मुख हेरयो। सूदनते नैन कहत कौन ज्ञान तेरयो । तामें सुनि मधुकर हम कहा लेन जाहीं । जामें प्रिय प्राण नाथ नंदनँदन नाहीं ॥ जिनके तुम सखा साधु वात कहो तिनकी । जीवत कहि प्रेम कथा दासी हम उनकी ।। अविनाशी निर्गुण मत कहा आनि भाख्यो । सूरदास जीवन प्रभु कान्ह कहा राख्यो।॥५३॥सारंगा जिनि चालहि अलि वात पराई। नहिं कोउ सुनै न समुझत ब्रज में नई कीरति सब जात हिराई॥ जाने समाचार सुखपाए मिाले कुलकी आरति विसराई। भले ठौर वसि भली भई मति भले ठौर पहिचानि कराई ॥ मीठी कथा कटुकसी लागति उपजतहै उपदेश खराई । उलटे न्याउ सुरके प्रभुके वहेजात माँगत उतराई ॥५४॥ धनाश्री ॥ ऊधो योग सिखावन आए अब कैसे धीरज धरौं । जोरि जोरि चित जोरि जुरीनो जोरी जोरिन जानौ ॥ पहिलो योग कहा भयो उधो अब यह योग डिढानो ॥ उन हरि हमसों प्रीति करी जो जैसे मीन अरु पानी । तलफि तलफि जिय निकसन लागे पापी पीर नजानी॥निशि वासर मोहिं पलक नलागै कोटि जतन कार हारी। ज्यों भुवंग तजि गयो केचुली सो गति भई हमारी । एकदिवस हरि अपने हाथन करन फूल पहिराए । ते मोहन माटीके मुद्रा मधुकर हाथ पठाए । वेनी सुभग गुही कर अपने चरणन जावक दीनो। कहा कहौं वा श्यामसुंदर सों निपट कठिन मन कीनो ॥ तुम जो वसत हो मथुरा नगरी हम जो वसत या गाँव । ऊधो हरिसों यो जाइ कहियो प्राण तजहि या ठाँव ॥ प्रीतम प्यारे प्राण हमारे रहे अधरपर आइ।सूरदास हरिजीके आगे कौन कहै दुखजाइ॥५५॥नैतश्री।। उधो योग सिखावन आए। शृंगी भस्म अधारी मुद्रा दै यदुनाथ पठाए ॥ जो पै योग लिखो गोपिनको कत रसरास खिलाए । तवहीं क्यों नज्ञान उपदेशो अधर सुधारस प्याए । मुरली शन्द सुनत बनगवनी पति सुत गृह विसराए । सूरदास सँग छांड स्वामिको हमहि भले पछिताए । ॥५६॥धनाश्री।।बहुत दिन गए उधो चरण कमल विनु देखे । दरशनहीन दुखित दिनही दिन छिन छिन विपति विशेषरिजनी अति प्रेम परि वन गृह मन धरै न धीरावासर मग जोवत उर सरिता भए नैनके नीरजोलौंही अवधि आश सोइ गानगति घटि रही श्वास । अति वियोग विरहिन तनु तजि है कहि सो सूरज दास ॥१७॥ऊधोवचन ॥ धनाश्रीज्ञान विना कहूँ वै सुख नाही। घट घट व्यापक दारु अग्नि ज्यों सदा बसै उर माहीं। निर्गुण छांडि सगुणको दौरति सोचि कहौ किहि वाही । तत्त्व भजौ ज्यों निकट न छूटै त्यों तनुके सँग छाहीं।।तिनके कहो कौन चस पायो जे अवलौं अवगाहीं। सूरदास ऐसे कर लागत ज्यों कृषि कीन्हें पाहीं॥६॥सोरठाऊधो प्यारे कही सो बहुरि नकहिए। जो तुम हमैं जिवायो चाहत अनवोले होइ रहिए ॥ प्राणहमारे घात होत हैं तुमरे, भावै हाँसी। या जीवन ते मरन भलो है करवत लेवो.कासी ॥ पूरवप्रीति सँभारि हमारे तुमको कहन पठायो। हमतौ जरि बरि भस्म भए तुम आनि समसान जगायो । कैहरि हमको आनि मिलावहु कै ले चलिए साथे। सूर श्याम बिन प्राण तजत हैं वनै तुम्हारे माथे ॥ ५९॥ धनाश्री ॥रे मधुकर कहा सिखावन आयो । एतौ नैन रूप रस राचे कयो नकरत परायों। योग युक्ति हम कछुव न जानें नाकछु ब्रह्म ज्ञानो । नवकिसोर मोहन मृदुमूरतिता सों मन उरझानोभली करी तुम आए उधों देखो दशा विचारी । दाइ उपाइ मिलाइ सूरप्रभु आरति हरहु हमारी।।६०॥कल्याण ॥ मधुकर कहा: । - %3-