पृष्ठ:सूरसागर.djvu/६१६

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दशमस्कन्ध-. . १९२३). कृपा योग लिखि पठए मनसिज करी गुहार। कछु इक शेप बच्योहै सूरप्रभु सोउ जिनि डारहु । मारि ॥९७॥सारंग।। कहौ तो जो कहिवेकी होई।प्राणनाथविछुरेकी वेदन जानत नाहिनकोई।जो हम अधर सुधारस लैलै रही मदन गति भोई । कहाकहौं कछु कहत नआवै तन मन रही समोई ॥ विरह व्यथा वेदन उर अंतर जामें वीत जाने सोई । सूरदास शिव सनकादिक लोभा सो हम बैठे खोई॥९८॥ नट ॥ उधो तुम ब्रजमें पैठ करीलिआएही नफा जानिकै सबै वस्तु अकरी।हम अहीर माखन माथ वेचें सबन टेक पकरी।इह निर्गुण निर्मोलकी गठरी अब किन करत घरी यह व्यापार वहां जो समातो हुती बडी नगरी । सूरदास गाहक नहिं कोऊ दिखिअत गरे परी ।।९९॥ धनाश्री ॥ ऊधो योग ठगौरी व्रज न विक है। मूरीके पातनके बदले को मुक्ताहल देंहे । यह व्यापार तुम्हारो उधो ऐसेहि धरयो रहि जैहै । जिन पैते ले आए ऊधो तिनहिके पेट समैहै ।। दाख दाडिमकत कटुक निवौरी को अपने मुखखैहै।गुणकरि मोहिं सूर साँवरेको निर्गुणही निवहै ॥३१०० ॥सारंग। मीठी बातनमें कहा लीजै । जोपै वै हरि होहिं हमारे करन कहै सोइ कीजै ॥ जिन मोहन अपने कर कानन कर्णफूल पहिराए। तिन मोहन माटीक मुद्रा मधुकर हाथ पठाए ॥ एकदिवस वेनी वृंदावन राचि पचि विविध वनाई। ते अव कहत जटा माथेपर वदलो नाम कन्हाई ॥ लाइ सगंध बनाइ अभूषण अरु कीनी अर्धग । सोवै अब कहि कहि पठवतहैं भस्म चढावन अंग ॥ कहा करौं दूरि नंदनंदन तुम जो मधुप मधुपाती।सूरनहोइ श्यामके मुखको जाहु न जारह छाती ॥१॥ ॥ सारंग ॥ ऊधो भूलि भले भटके । कहत कही कछु बात लडेते तुम ताही अटके ॥ देखों सकल सयान तिहारो लीने छरि फटके । तुमहि दियो बहराइ इतेको वै कुविजासों अटके ॥ लीजो योग सँभारि आफ्नो जाहु तहीं तटके । सूरश्याम तजि कोउ नलैंहै या योगहि कटुके ॥२॥ नट ॥ ऊधो तुमहौ निकटके वासी ! यह निर्गुण ले ताहि सुनावहु जे मुडिया बसैं कासी ॥ मुरली अधर सकल अंग सुंदर रूप सिंधुकी रासी । योगकटोरे लिए फिरतही ब्रजवासिनकी फासी ॥राज कुमार भले हम जानै घरमें कंसकी दासी । सूरदास यदुकुलहि लजावत ब्रजमें होतहै हांसी ॥३॥ ॥ सारंग ॥ उधो तुम जो निकटके वासी । यह परमारथ बूझि कहौ किन नाम बडोकी कासी ॥ योग ज्ञान ध्यान अवराधन साधन मुक्ति उदासी । नाम प्रकार कहा रुचि मानहिं जो गोपाल उपासी ॥ परमारथी जहां लौं जेते विरहिनिके दुखदाई । सूरदास प्रभु रँगे प्रेमरंग जारौ योग सगाई ॥१॥ मलार मधुप विराने लोग वटाऊ । दिनदशरहे आपने कारण तजिगए मिले नका। प्रीतम हरि हमको सिधि पठई आयो योग अगाऊ । हमको योग भोग कुविजाको उहिकल सुभाऊ ॥ जान्यो योग नंदनंदनको कीजे कौन उपाऊ । सूरश्यामको सर्वसु दीन्हौं प्राण रहेकी जाऊ ॥५॥ दिन दिन प्रीति देखिअत थोरी । सुनहु मधुप मधुवन वसि मधुरिपु कल मर्यादा छोरी ॥ गोकुलके माणि त्रिभुवन नायक दासीसों रति जोरी । तापर लिखि लिखि योग पठावत विसरी माखनचोरी॥काको मान परेखो कीजै वधी प्रेमकी डोरी । सूरदास विरहिनि विरहाजार भई सांवरी गोरी ॥६॥ आसावरी ॥ जादिनते गोपाल चले। तादिनते ऊधो या बजके सव सुभाइ बदले ॥ घटे अहार विहार हर्प हितु सुख सोभा गुणगान । उतलतेज सब रहित सकल विधि आरति असम समान ॥ वाढी निशावलय आभूपण उर कंचुकी उसास । नैननजलं अंजन अंचलपति आवत अवधिकी आस । अब यह दशा प्रगटके तनुकी कहवी जाइ सनाद। सूरदास प्रभुसों कीवो जिहि वेगि मिलहि अब आइ॥७॥ गौरी ॥ हमारी उधो पीर न हरिविनजा। - -