पृष्ठ:सूरसागर.djvu/६२

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सूरसागर-सारांवली। करितिं जगतकरी विस्तार ।। २३२ ॥ वेदशास्त्र मथकरी व्याहविधि सोइ कीन्हीं नृपराय । राम लपणअरु भरत शत्रुहन चारों दिये विवाय॥२३३||होम हवन द्विजपूजा गणपति सूरज शक महेश। दीन्हों दान बहुत विप्रनको राजा मिथिल नरेश ॥ २३४ ॥ उत्सवभयो परम आनंदको बहुत दायजोदीन्हों। भयेविदा दशरथनृप नृपसों गमन अवधपुर कीन्हों॥२३५॥ भृगुपतिआय जानि जब रघुपति मिलेधाय शिरनाय । दशरथराय विनय बहु कीन्ही जियमें ति डरपाय ।। २३६॥ तव मुनि कह्यो धनुप क्यों तोरेउ रुद्र परम गुरु मेरे । रामचंद्र पूरण पुरुपोत्तम नेकनयन जब हेरे ॥२३७ ।। लीन्हों अंश बैंचि भृगुपतिको अपनेरूप समायो। करोजाय तप शैल महेंद्रपै सुनि मुनिवर शिरनायो । २३८॥ अतिआनन्द अयोध्याआये कियो नगर शृंगार । कदलीखंभ चौक मोतिनके बाँधी वंदनवार ॥२३९॥ कियोप्रवेश राजभवननमें रामचन्द्र सुखराश । अद्भुत भवन विराजत रत्नन सूरजकोटि प्रकाश ॥ २४०॥ द्वादश वरप विराजे पालक फिर भूभारहरो। कैकेयीके वचन प्रमानकिये नृप तव यह काजकरो ॥२४१॥ वचन समझ नृप आज्ञाकीन्हों देव उपायकरो। रामचन्द्र पितुआज्ञा मानी जियमें वचनधरो॥२४२ ॥ यह भूभार उतारन रघुपति बहुत ऋपिन सुखदेन । वनोवासको चले सियासँग सुखनिधि राजिवनैन ॥२४३ ।। मारगमें हरि कृपा करीहै परमभक्त इकजान । तहतेगये जु चित्रकूटको जहां मुनिनकीखान ॥२४४॥ वाल्मीकि मुनि वसत निरंतर राममंत्रउच्चार। ताकोफल यह आजभयो मोहि दर्शनदियो कुमार। ॥२४५ ।। पूजाकर पधराय भवनमें रामचन्द्र परनाम । कियो विविधविधि पूजाकरिके ऋपिचरनन शिरनाम ॥२४६॥ बहुत दिवसलौं बसे जगतगुरु चित्रकूट निजधाम । किये सनाथ बहुत मुनिकुलको बहुविधि पूरे काम ॥ २४७॥ भरतजान जियमें रघुपतिको दुःसह परम वियोग। आयेधायसंग सवलैके पुरवासी गृहलोग ॥ २४८॥ विन दशरथ सब चले तुरतही कोशलपुरके वासी । आये रामचन्द्र मुखदेख्यो सबकी मिटी उदासी ॥२४९॥ रामचन्द्र पुनि सवजन देखे पिता न देखनपाये। पूछीबात को तव काहू मनबहुविधि विलखाये ॥ २५० ॥ वेदरीतिकरि रघुपति सवविधि मर्यादा अनुसार । बहुतभांति सब विधि समुझाये भरत करीमनुहार॥२५॥ गुरु वशिष्ठ मुनि कह्यो भरतसों राम ब्रह्मअवतार । वनमेंजाय बहुतमुनितारे दूरकरें भुवभार ।। ॥२५२॥ पुनिनिजविश्वरूप जो अपनो सो हरिजाय देखायो। आज्ञापाय चले निजपुरको प्रभु हिगीत समझायो ॥ २५३ ॥ कछु दिनवसे जु चित्रकूटमें रामचन्द्र सहभ्रात । तहांते चले दंडकावनको सुखनिधि साँवलगात ॥२५४ ॥मारगमें बहुमुनिजनतारे अरु विराध रिपुमारे। 'वंदनकर सरभंग महामुनि अपनेदोपनिवारे ।। २५५ ॥ दरशन दियो सुतीक्षण गौतम पंचवटी पगधारे । तहांदुष्ट सूर्पनखानारी करिविन नाकउधारे ॥ २५६॥ यह सुनि असुर प्रवलदलआये छिनमें रामसँहारे । कीन्हेंकाज सकलसुर मुनिके भुवके भार उतारे ॥२५७॥ मुनिअगस्त्य आश्रम जुगये हरि बहुविधि पूजाकीन्हीं। दिव्य वसन दीने जव मुनिने फिर यह आज्ञा दीन्हीं॥ .॥२५८ ॥ दशकंधरको वेगि सँहारो दूरकरोभुवभार । लोपामुद्रा दिव्य वस्त्र लै दीने जनक कुमार ॥ २५९ ॥ शूर्पनखा जब जाय पुकारी नाक कान ले हात । रावण क्रोध कियो अतिभारी अधरफरक अतिगात ॥ २६० ॥ गयो मारीच आश्रमहि तवहीं वानै बहु समझायो । तब मारीच कहो दशकंधर विनती बहुत करायो॥२६३ ॥ रामचन्द्र अवतार कहत हैं सुनि नारद मुनि पास.1:प्रकट भये निश्वर मारनको मुनि वह भयो उदास ॥ २६२ ॥ करगहि खड्ग तोर वध