पृष्ठ:सूरसागर.djvu/६२५

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(५३२) वेर कैसेहु करि ऊधो करि छल बल गहिपाइ ॥ दीजो उनहि सुसारि उरहनों संधि संधि समुझाइ। जिनहिं छांडि पटिआ महँ आए ते विकल भए यदुराइ ॥ तुमसों कहा कहोंहों. मधुकर बातें बहुत बनाइ। वहियां पकारि सूरके प्रभुकी नंदकी सौह दिवाइ॥८॥केदारोगा उधोश्याम इहां लै आवहु।. ब्रजजन चातक मरत पियासे स्वाति बूंद वरषावहु ॥ इहाँते जाहु विलंब करहु जिनि हमरी दशा जनावहु । घोषसरोज भए हैं संपुट होइ दिनमणि विगसावहु ॥ जो ऊधो हरि इहां न आवहिं तौ हम वहाँ बुलावहु । सूरदास प्रभु हमाह मिलावहु तब तिहुँ पुर यश पावहु ॥ ८२ ॥. कहहु कहा हमते विगरी कौने न्याइ योग लिखि पठए हम सेवा कछु ऐ नकरी|पाखंड प्रीत करी नँद नंदन अवधि अधार हुतोसो टाररामुटा जटा ऊधौ लै आए ब्रजवनिता पहिरो सगरीजाति स्वभाउ मिटै नहिं सजनी अंतत उवरी कुबरी । सूरदास प्रभु वेगि मिलहु किनि नातरु प्राण जात निकरी।। ८३॥ केदारो विरही कहालौं आपु सँभारी जवते गंग परी हरि पगते बहिवो नहीं निवारै । नैननते विछुरी भौ भ्रम शशि अजहूँ तनु गारे । रोमते विछुरी कमल कंठ भए सिंधुभए जरि छारे।। वैनते विछुरी विधि अवधि भई वेदहिको निरवारे । सूरदास जाके सब अंग विछुरे केहि विद्या उपचारे॥८॥मलार॥ बहुत दिन गए माई हरि दरशन विनु देखे । गनतहिगनत गई सुनि सजनी कर अँगुरिनकी रेखे ॥ अब इहि विरह अगर जो करी हम विसरी नैन निमेषै । होड परति सुनि सूरदास जनि पारहु उनहीके लेखे ८६॥ धनाश्री ॥ उधो भली भई अव आए। विधि कुलाल कीने काचे घटते तुम आनि पकाए॥ रँगदीनो हो काम श्याम लै अंग अंग चित्र बनाए । याते गरे न नैन मेह ते अवधि अटापर छाए ॥ ब्रजकरि अंबा योगईधन सम सुरति आगि सुलगाए ॥ फूंक उसास विरह पर जारनि संग ध्यान दर शशि अराए ॥ भरे संपूरण कलश प्रेम जल छुअन नकाहू पाए।राजकाजते गए सूर प्रभु नँदनंदन करलाए॥८६॥मलार ॥ उधो भली करी इहां आए। तुम देखे जनु माधो देखे दुख त्रय ताप नशाए। नंद यशोदाको नातो नछूटत वेद पुराणन गाए। हम अहीरि तुअहीर लाख दश का भयो निर्गुण गाए।तब यहि घोष खेलावहु खेलहु ऊखल भुना बँधाए । सूरदास प्रभु इहै शूल जिअ बहुरि न दरश देखाए । ८७ ॥ मधुकर कहि मधुवनकी रीति । राजाह यदुनाथ तिहारे कहा चलावत नीति ॥ निशिलों करत दाह दिनकर ज्यों हुतो सदा शशिशीति । पूरव पवन कहो नहिं मानत गयो सहज वपु जीति ॥ कंसकाज कुविजाके मारयो भई निरंतर प्रीति । सूर विरह ब्रज भलो न लागत नहीं व्याहु तहीं गीति ॥८८ केदारो ॥ हरि विनु नाहिंन परतरहो । उत गिरि दुर्गम इतहि दव दारुण क्यों दुख जात सहो । उठत विरहधूम पावक जार वरि वाउ वहो। हरि नागनि फिरि फूंक प्रजारनि पलकनि हृदय दहो। यद्यपि घृत लै आयो ऊधो योग सँदेश कहो । तद्यपि भस्म नहोत सूर सुनि चलत गुपाल चहो।।८९॥मलागामाधोजी नैक देखाई देहु।जो यातनमें ताके बदले जो चाहो सो लेहु।।भूली फिरत ठगीसी तवते विनु बलमति गुण गेहु । जवते इन अपराधी नयनन वरजत कियो सनेहु । कहियो जाइ मधुप पालागौं विरह कियो तनु गेहु । रहत आश सुनि सूर दरशके निशि दिन इहै संदेहु ॥ ९०गौरीयहि ब्रज होइहै कब हरिको आवनानीकेकै वचन सुनाउ मधुपमोहिं विरह व्यथा विसरावन॥ हो इहबात कहा जानों प्रभु जात मधुपुरी छावनाअपनी चूक मानि उर अंतर अब लागी दुखपावन ।। अह निशि सूरज घरीभईहो तनुश्वासै शशि तावन । याब्रज करपि अमि उर ऊपर रहो दुसह धन | सावन९१सारंग उधोजो हरि आवे तोप्राणरहै । आवत जात उलटि फिरि बैठत जीवते. औधि गहै ।। D