पृष्ठ:सूरसागर.djvu/६४०

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दशमस्कन्ध-१० (५४७) उड़ि बैठी खात ॥१७॥ नट ॥ जानी उधोकी चतुराई । वार वार तुम कहत अध्यातम पावत कौन वडाई ।। जो तुम कहत अगाध अगोचर हरिरस तजो नजाई । बाहर भीतर ध्यान सगुन विनु सुनियत दूरि भलाई।सूरदास प्रभुः विरहजरी है विनु पावक दो लाई॥१८॥सारंगाजानी अलि ऊधो चतुराई । ब्रजमंडलकी दशा देखिकै कथा सबै विसराई ॥ परमप्रिया पथ देखन पठए कहि गति योग वनाई। इनको आन भाव विठुरनके ले वाजनि हम लाई ।। कहा करो हरि कहा सुन्यो इनि कहि लीला मुखगाई । यद्यपि विविध वडे यदुकुलके नेक नवढी बडाई ॥ गुणमहि मंत्र सदा श्रीपतिके मुक्तिपुरी अव गाई । नहिं देखी ब्रजवनकी लीला सूरश्याम लरिकाई ॥ १९॥ मलार ॥ इहिविधि पावस सदा हमारे। पूरव पवन श्वास उर ऊरथ आनि जुरेत कठारे॥ वादर श्याम श्वेत नयननमें वरपि आँसु जलढारे । अरुन प्रकाश पलक दुति दामिनि गर्नन नाम पिप्यारे ॥ चातक दादुर मोर प्रगट व्रज वसत निरंतर धारे। ऊधो ए तबते अटके जब श्याम रहे हिततारे ॥ कहिए काहि सुनै कत कोऊ या ब्रजके व्यवहारे। तुमहींसों कहिकै पछितानी सूर विरहके धारे ॥२०॥ ॥ केदारो ॥ जौपै कोऊ मधुवनहूँलों जाइ । पतियां लिखौ श्यामसुंदरको कंकन देहौं ताहि ॥ नयननीर सारंग रिपु भीजत युग सम नि विहाइ । अब यह भवन भयो पावक सम हरि विन मोहिं नसुहाइ । पछिली प्रीति कहा भई ऊधो मिलते वेणु वनाइ । सूरदास प्रभु वेगि मिलहु किन पुनि कहा करोगे आइ॥ २१ ॥ बिलावल ॥ ऊधो कोकिल कूजत कानन । तुम हमको उपदेश करतहो भस्म लगावन आनन ॥ औरौ सींगी सखी संगलै टेरत चढे पपानन । वहुरो आइ पपीहा केमिस मदन दहत निज वानन ।। हमतौ निपट अहीरि वावरी योग दीजिए जानन । कहा कथत मासीके आगे जानत नानी नानन ॥ तुमतौ हमहिं सिखावन आए मुक्ति होइ निर्वानन । सुरमुक्ति कैसे पूजति वा मुरलीके तानन ॥२२॥ सारंग ॥ ऊधो हरिके अवरै ढंग । जहां न अनंग रस रूप नेहको तहाँ दई गति जो अनंग ॥ आपु विषमता तजि दोऊ सम भै वानक ललित त्रिभंग। मानों मरिचि देखि तनुभूली भूपथ सुरभि सुरंग ॥ तजे कुसुमकर कंटक वन भ्रमि नहि कामो भ्रूभंग । कनकवेलि सतदल शर मंडित दृढ तर लता लवंग ॥ श्यामा सदन विसारि भने पुर चंचल नारि पलंग ॥ ते मुख बहुत बहुत पावहिंगे जे करिहैं अँगसंग। काकेहोहिं जो नहिं गोकुलके सुरज प्रभु श्रीरंग।२३॥आसावरी|उधो हम दोउ कठिन परी । जो जीवें तो मुनि जड ज्ञा नी तनु तजि रूप हरी ॥ गुण गावे तो शुक सनकादिक धाय लीला फरी। आशा अवधि विचा रिहैं तो धर्म न ब्रज सुंदरी ॥ सखीमंडली सब जो सयानी विरहा प्रेम भरी। सोक समुद्र तरिवेको नौका जे मुख मुरली धरी॥ निाश वासर निरंकुश अति बड मातो मदन करी । दाहत धाम सूर प्रभु चितवत गमन करें कैसेरी ॥ २४ ॥ केदारो ॥ ऊधो सुनिहो वात नईसी । प्रेमवानिकी । चोट कठिनहै लागी होइ कहो कत ऐसी ॥ तुमहिं विचारि कहा कहि दीजे हो आनि | कहतरे जैसी । जानै कहा वाँझ व्यावर दुख जातक जनहि नपीरहै कैसी ॥ हम बावरी नआनि वौराववत कहत न तुम्हें बूझिए ऐसी । सूरदास न्याइ कुविजाको सरवसु लेइ हमारो वैसी ॥ २५ ॥ यशोमति॥वचन केदारो ॥ ऊधो उदित भई सब दुखकी करनी। ब्रजवेली सब सूखन लागी बात कही नँदघरनी ॥ कमल वदन कुँभिलात सवनके गौवन छांडी तृणके चरनी । सुख संपति री वीति गयो सब नीकी लागीरी अलि अनजलकी झरनी|देखोचारौ चंद्रमुख शीतल विन दरशन | क्यों मिटती जरनी । सुत सनेह समुझति सु सूरप्रभु फिरि फिरि यशुमति, परती धरनी ॥२६॥