सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:सूरसागर.djvu/६५३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(५६०)
सूरसागर।


चली पूछे कछु वात । कहि कहि ऊधो हरि कुशला ।दाकहि कुशला सांचीवाते आवन कह्यो हरि नाथै । कै गरवाने राजसभा अब जीवत हम न सुहाथै ॥ ठाढी तनुकांपै टेरै झाँकै वार वार अकुलाइ । अब जिय कछू कपट जिन राखो बूझे सौंह दिवाइ ॥२॥ कहो ऊधो तुम क्यों बन आए । तब हँसि कहो हम कृष्ण पठाए ॥ छंद ॥ कृष्ण पठाये तो व्रज आए कहत मनोहर वानी। सुनहु सँदेशो तनहु अंदेशो हो तुम चतुर सयानी ॥ गोप सखा जिय हिय जिन राखौ आविगत है अविनासी । मोहन माया वैर नदावा सब घट आपुनिवासी ॥३॥ ऊधो जिन इह कहो तुम प्रभुकी प्रभुताइ । सुनि जिय अंगहि वढ्यो रिसि सही न जाइ ॥ रिस सहीं ना जाइ अंगहि बच्यो अति इह तुमरी चतुराइ दासी कुविजा सेजकी संगत कवन वेद मति पाइ ॥ तुमहूं भली कहनको आए हमको भली सुवानी । जो कछु वस्तु देखिअत नैननसो क्यों नहिं मनमानी ॥ ४॥ गोविंदकी वाणी सब कोइ जानी । परवश भई कहत अब सोई मानी ॥ छंद ॥ सब कोइ जाने क्यों मनमानै अव नकछू कहि आवै । जो कछु कुविजाके मनभावै सोइ सोइ नाच नचावै ॥ वाको न्याउ दोष सब हमको कर्मरेखको जानै । गोरस देखि जो राख्यो गाहक विधिनाकी गति आने ॥५॥ ऊधो कमलनयनसों कहियो जाइ । एक बेर बज़ देखो आइ ॥छंद । जिहके प्रीति निरंतर मनमें सो मन क्यों समुझावै । शंकर ब्रह्मशेष अरु सुरपति कोउ हरि दर शनपावै ॥ वैसे राज विलास कोलाहल घर धर माखन हरई।सूरदास प्रभु मिलत बहुत सुख विरह श्वास कत जरई ॥६॥३७॥ उद्धव वचन ॥ भैरव ॥ मैं तुमपै व्रजनाथ पठायो । आतमज्ञान सिखावन आयो ॥ आपुहि पुरुष आपुही नारी।आपुहि वानप्रस्थ ब्रह्मचारी ॥ आपुहि पिता आपुही माता ॥ आपुहि भगिनि आपुही भ्राता ॥ आपुहि पंडित आपुहि ज्ञानी । आपुहि राजा आपुहि रानी ॥ आपुहि धरती आपु अकासा । आपुहि स्वामी आपुहि दासा ॥ आपुहि ग्वाल आपुही गाइ ॥ आपुहि आप चरावन जाइ ॥ आपुहि भवरा आपुहि फूल आतमज्ञान विना जगमूल ॥ राव रंक दूना नहिं कोई । आपहि आप निरंजन सोई ॥ इहि प्रकार जाको मनलाग । जरा मरनसे भवभय भाग ॥ योगसमाधि ब्रह्म चित लावहु । ब्रह्मानंद तबहिं सुख पावहु ॥७॥ गोपी उद्ध्वपति उत्तर ॥ योगी होइ सो योग वखाने । नौधाभक्ति दास रति मानै ॥ भजनानंद अली हम प्यारो । ब्रह्मानंद सुख कौन विचारो ॥ वतियां रचिपचि कहत सयानी । अँखियाँ हरिके रूप लोभानी ॥ व्यावर विथा न वंझा जाने । विन देखे कैसे रतिमान ॥पुनि पुनि पुनि वोही सुधि आवोकृष्णरूप विन और नभावै ॥ नवकिसोर जहि नैन निहारयो। कोटि योग वा छविपर वारयो । शीश मुकुट कुंडल वनमाला। क्यों विसरै वे नैन विशाला ॥ मृगमदं मलय अलक घुघुरारे । उन मोहन मन हरे हमारे ॥ भ्रुकुटी कुटिल नासिका राजे । अरु न अधर मुरली कलं बाजै ॥ दाडिम दशन । दामिनि दुति सोहै मृदु मुसुकान जो तन मन मोहै । चंद्रझलक कंठ मणि मोती । दूर करत उडुगणकी ज्योती ॥ कंकन किंकिणि पदिक विराजै । गजगति चाल नूपुर कल बाजै । वनके धातु चित्र तनुकिए । श्रीवत्स चिह्न राजत अतिहिए ॥ पीतवसन छवि वरनि न जाई । नखशिखा सुंदर कुँवर कन्हाई ॥ रूपराशि ग्वालनको संगी। कब देखें वह ललित त्रिभंगी ॥ जोतू हितकी बात बतावै । मदन गोपालहि क्यों न मिलावै ॥८॥ उद्धववचन ॥ जाके रूप वरन वपु नाही ॥ नैन मुंदि चितवो चितमाही ॥ हृदय कमलमें ज्योति विराजे । अनहद नाद निरंतर बाजै ॥ इडा पिंगला सुपमन नारी सहज सुतामें वसै मुरारी ॥ माता पिता न दारा भाई ॥