देखियतहै अब सब दुख शोक विसारी । बैठे हैं सुफलकसुत गोकुल लेन जो वहाँ सिधारी ॥ आनंदित चित जननि तात हित कृष्ण मिलन जिय भाए । सूरदास दुहुँ कुल हित कारण अब माधो मधुपुरी जुआए ॥४॥ अध्याय ॥ ५२ ॥ द्वारकाकी सोभा ॥ कल्याण ॥ दिन द्वारावति देखन आवत ।
नारदादि सनकादि महामुनि ते अवलोकि प्रीति उपजावत ॥ विद्रुम स्फटिक पची कंचन खचि मणिमय मंदिर बने बनावत । जितनेतर नर नारि उपर खग सवहिनको प्रतिबिंब दिखावत । जल थल रंग विचित्र बहुत विधि अवलोकत आनंद बढावत । मूलि रहे अति चतुर चितै चित कौन सत्य कछु मर्म न पावत ॥ वन उपवन फल फूल सुभगसर शुक सारिका हंस पारावत । चातक
मोर चकोर वदत पिक मनह मदन चटसार पदावत ॥ धाम धाम संगीत सरस गति वीणा वेणु मृदंग बजावत । अति आनंद प्रेम पुलकित तनु जहां तहां यदुपति यशगावत ।। निशि दिन रहत विमान रूठ रुचि सुरवनितानि संग संव:आवत । सूरश्याम क्रीडत कौतूहल अमरन अपनो भवन नभावत ॥५॥ सारंग ॥ श्रीमनमोहन खेलत चौगान । द्वारावती कोट कंचनमें रच्यो रुचिर मैदान ॥ यादव वीर वराइ बटाई इक हलधर इक आपै ओर । निकसे सवै कुँअर असवारी उच्चैःश्रवाके पोलीले सुरंग कुमैत श्याम तेहि परदे सब मन रंग। वरन अनेक भांति भांतिनके चमकति चपलावेग ॥ जीन जराइ जु जगमगाइ रहे देखत दृष्टि भ्रमाइ। सुर नर मुनि कौतुक सबै लागे इकटक रहे लुभाइजिवहीं हरिलै चले गोइ कुदासौ लाइ। तवहीं औचकही वेल हलधर पाइ ॥ कुँअर सबै घोरे फेरे फेरत छुडत नहिनै गुपाल । बलै अछत छल बल करि सूरदास प्रभु हाल ॥६॥ रुक्मिणीपत्रिका आवन ॥ बिलावल ॥ हरि हरि हरि हरि सुमिरन करो । हरि चरणार्विद उर धरो ॥ हरि सुमिरण जब रुक्मिणि करयो । हरि करि कृपा ताहि तब बरयो ॥ कहीं सो कथा सुनो चितलाई । कहै सुनै सो रहै सुखपाई ॥ कुंदनपुरको भीषम राई । विष्णुभक्तिको तामन चाई । रुक्म आदि ताके सुत पांच । रुक्मिणि पुत्री हरिरँग राच ॥ नृपति रुक्मसों को सुनाई । कुँवार योग्यवर श्रीयदुराई ॥ रुक्म रिसाइ पितासों कह्यो । सुनि ताको अंतर्गत दह्यो । रुक्म चंदेरी विप्र पठायो । व्याहकाज शिशुपाल बुलायो । सो वरात जोरि तहां आयो । श्रीरुक्मिणिके । जिय नहिं भायो ॥ कह्यो मेरोपति श्रीभगवान । उनही बरो के तनो पराना भीषम सुंता रुक्मिणी वाम । सूरजपति निशि दिन वहनाम ॥७॥ कान्हरो ॥ द्विजपतियां दे कहियो श्यामहि । कुंदनपुरकी कुँवरि रुक्मिणी जपति तुम्हारे नामहि ॥ पालागौं तुम जाहु द्वारावति नंदनंदन के ग्रामहि । कंचन चीर पटंबर देही करकंकनने नामहि यह शिशुपाल मजैत श्रीदीनबंधु ब्रजनाथ कबै मुखदेखिहौं ।
कहि रुक्मिणि मनमाहँ सबै सुखलखिहौं । गावहिं सब सहचरी कुँआर तामसकरि हेरयोसिब दिन । सुखसाथिनी आज कैसे मुख फेरयो । मेरे मन कछु औरहै तुम कछु गावति और । प्राण तजौंगी आपनो देखि असुर शिरमौरातिहूँलोकके धनी मनी तुमहीकी सोहै।सत्यकीर्ति औ पुरुषहि समरथ सब मोहै ॥ पर पुरुषारथ काग हंसनिके घर आवै । कामधेनु खरुलेइ काल अमृत उपजावे कुटुंब वैर मेरे परे वरनि वरे शिशुपाल । करनि सिंह तुम्हरी धरी कैसे चपै शृगाला भुवन चतुर्दश राज सकल सुर नर मुनि देवा । करजोरे शशि सूर पवन पानी करें सेवा ॥ अवहीं औरकी और होति कछु लागै बारा । ताते मैं पाती लिखी तुम प्राणअधारा-॥ कटहि भूख औ नींद जीवनहीं । जानात नाहीं। अनदेखे वे नैन लगे लोचन पथवाही ॥ के यदुपति लै आवहूं करों प्राणलगि घाना ॥ बाजे शंख जानिहौं सांची आयो यादवराउ ॥ जो मांगौ सो देउँ लेह माधों सँग आए । कोटि
पृष्ठ:सूरसागर.djvu/६६३
दिखावट
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(५७०)
सूरसागर।
