पृष्ठ:सूरसागर.djvu/६६३

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Minostman- (६७०) 'सूरसागरे। .. . . .. देखियतहै. अब सब दुख शोक विसारी । बैठे हैं सुफलकसुत गोकुल लेन जो वहाँ सिधारी॥ आनंदित चित जननि तात हित कृष्ण मिलन जिय भाए। सूरदास दुहुँ कुल हित कारण अब माधो मधुपुरी जुआए॥४॥ अध्याय ॥ ५२ ॥ द्वारकाकी सोभा || कल्याण ॥ दिन द्वारावति देखन आवत। नारदादि सनकादि महामुनि ते अवलोकि प्रीति उपजावत ॥ विद्रुम स्फटिक पची कंचन खचि मणिमय मंदिर बने बनावत । जितनेतर नर नारि उपर खग सवहिनको प्रतिबिंब दिखावत । जल. थल रंग विचित्र बहुत विधि अवलोकत आनंद बढावत । मूलि रहे अति चतुर चितै चित कौन सत्य कछु मर्म न पावत ॥ वन उपवन फल फूल सुभगसर शुक सारिका हंस पारावत । चातक मोर चकोर वदत पिक मनह मदन चटसार पदावत ।। धाम धाम संगीत सरस गति वीणा वेणु मृदंग बजावत । अति आनंद प्रेम पुलकित तनु जहां तहां यदुपति यशगावत ।। निशि दिन रहत विमान रूठ रुचि सुरवनितानि संग संव:आवत । सूरश्याम क्रीडत कौतूहल अमरन अपनो भवन नभावत ॥५॥ सारंग ॥ श्रीमनमोहन खेलत चौगान । द्वारावती कोट कंचनमें रच्यो रुचिर. मैदान ॥ यादव वीर वराइ बटाई इक हलधर इक आपै ओर । निकसे सवै कुँअर असवारी उच्चैःश्रवाके पोलीले सुरंग कुमैत श्याम तेहि परदे सब मन रंग। वरन अनेक भांति भांतिनके . चमकति चपलावेग ॥ जीन जराइ जु जगमगाइ रहे देखत दृष्टि भ्रमाइ। सुर नर मुनि कौतुक सबै लागे इकटक रहे लुभाइजिवहीं हरिलै चले गोइ कुदासौ लाइ। तवहीं औचकही वेल हलधर पाइ॥ कुँअर सबै घोरे फेरे फेरत छुडत नहिनै गुपाल । बलै अछत छल बल करि सूरदास प्रभु हाल ॥६॥ रुक्मिणीपत्रिका आवन ॥ बिलावल ॥ हरि हरि हरि हरि सुमिरन करो । हरि चरणार्विद उर धरो॥ हरि सुमिरण जब रुक्मिणि करयो । हरि करि कृपा. ताहि तब बरयो ॥ कहीं सो कथा सुनो चितलाई । कहै सुनै सो रहै सुखपाई. ॥ कुंदनपुरको भीषम राई । विष्णुभक्तिको तामन चाई। रुक्म आदि ताके सुत पांच । रुक्मिणि पुत्री हरिरँग राच ॥ नृपति रुक्मसों को सुनाई। कुँवार योग्यवर श्रीयदुराई ॥ रुक्म रिसाइ पितासों कह्यो । सुनि ताको अंतर्गत दह्यो । रुक्म चंदेरी विप्र पठायो । व्याहकाज शिशुपाल बुलायो । सो वरातः जोरि तहां आयो। श्रीरुक्मिणिके । जिय नहिं भायो॥ कह्यो मेरोपति श्रीभगवान । उनही बरो के तनो पराना भीषम सुंता रुक्मिणी वाम । सूरजपति निशि दिन वहनाम।।७॥ कान्हरो ।। द्विजपतियां दे कहियो श्यामहि । कुंदनपुरकी : कुँवरि रुक्मिणी जपति तुम्हारे नामहि ॥ पालागौं तुम जाहु द्वारावति नंदनंदन के ग्रामहि । कंचन । चीर पटंबर देही करकंकनने नामहि यह शिशुपाल मजैत श्रीदीनबंधु ब्रजनाथ कबै मुखदेखिहौं । कहि रुक्मिणि मनमाहँ सबै सुखलखिहौं । गावहिं सब सहचरी कुँआर तामसकरि हेरयोसिब दिन । सुखसाथिनी आज कैसे मुख फेरयो । मेरे मन कछु. औरहै तुम कछु गावति और । प्राण तजौंगी | आपनो देखि असुर शिरमौरातिहूँलोकके धनी मनी तुमहीकी सोहै।सत्यकीर्ति औ पुरुषहि समरथ सब मोहै ।।.पर पुरुषारथ काग हंसनिके घर आवै । कामधेनु खरुलेइ काल अमृत उपजावे... कुटुंब वैर मेरे परे वरनि वरे शिशुपाल । करनि सिंह तुम्हरी धरी कैसे चपै शृगाला भुवन चतुर्दश राज सकल सुर नर मुनि देवा । करजोरे शशि सूर पवन पानी करें सेवा ॥ अवहीं औरकी और होति कछु लागै बारा । ताते मैं पाती लिखी तुम प्राणअधारा-॥ कटहि भूख औ नींद जीवनहीं । जानात नाहीं। अनदेखे वे नैन लगे लोचन पथवाही।। के यदुपति लै आवहूं करों प्राणलगि घानाः ।। बाजे शंख जानिहौं सांची आयो यादवराउः॥ जो मांगौ सो देउँ लेह माधों सँग आए । कोटि