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पृष्ठ:सूरसागर.djvu/६६५

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सूरसागर।


लिख्यो मेटि गुरुतात । ताते यह द्विज वेगि पठायो नेम धर्म मर्यादा जात ॥ तनु आत्मा सम पिंत तुम कह पाछे उपजि परी यह बात । कृष्णसिंह बाल धरी तिहारी लेवेको जंबुक अंकुलात ॥ कृपाकरहु उठि वेगि चढहु रथ लग्न समै आवहु परभात । सूरदास शिशुपाल पानि गहै पविक जारि करौं तनुपात ॥११॥ धनाश्री ॥ हौं प्रभु जन्म जन्मकी चेरी । भीषम भवन रहतहों में ज्यों लुब्धक असुर सैन्य मिलि घेरी ॥ प्रातकाल शिशुपाल कालते यदुपति आवै वेगि सवेरी । कछ विपरीति बात नहिं आवै उपजी प्रीति ग्राह गज केरी । सूरदास प्रभु कृष्णप्रीति विनु प्राणविना तनु लागत पेरी ॥१२॥ मारू ॥ द्विज वेग धावहु कहि पठावहु द्वारकाते जाइ । कुंदनपुर एक होत अजगुत बाघ घेरी गाइ ॥ दीनद्वैकार करहुँ विनती पाती दीजहु जाइ । रुक्म-वरवस व्याहि देहै गनै पितहिन माइ ॥ लग्न लै जु वरात साजी उनत मंडप छाई । पैज करि शिशुपाल आए जरासंध सहाइ ॥ हंसको मैं अंशराख्यो काग कत मँडराइ । गरुडवाहन कृष्ण आवहु सूर वलि वलि जाइ ॥१३॥ अथ दिनसंदेश कृष्णप्रति वदत ॥ राग आसावरी ॥ बाल मृगीसी भूली आँगन ठाढी । नवल विरहिनी चित चिंता बाढी ॥ तुम्हारो पंथ निहारै स्वामी । कवहिं मिलहुगे अंतर्यामी ।। मंडपपुर देखे उर थरथर करै । मनु चहुँदिशि दो लागी धीरज तन न धरै ॥अपने विवाह के दुंदुभी सनि सुनि । चकृत मन मानो महासिंह ध्वनि ॥ सखिनकी माल जाल जिय जानाति । व्याधरूप शिशुपालहिं मानति ॥ सूरदास युगभरि वीततछिनु । हरि नवरंग कुरंग पीव विनु ॥१४॥ अध्याय ॥ ५ ॥ कुंदनपुर श्रीकृष्णगए ॥ सारंग ॥ सुनत हरि रुक्मिणिको संदेश । चदिरथ चले विप्रको संगलै-कियो न गेह प्रवेश ॥ वारंवार विप्रको पूंछत कुँअरि वचन सो सुनावत । दीन वचन करुणानिधान सुनि नयननीर भरिआवताकहो हलधरसों आवहु दललै मैं पहुँचतहौं धाई। सूरप्रभू कुंडिनपुर आए विप्रनू जाइं सुनाई ॥१५॥ कुँरि सुनि पायो अतिआनंदन । मनहींमनहिं विचारक रत इह कव मिलिहैं नँदनंदन ॥ हार चीर पाटवर देकार विप्रहि गेह पठायो। पै इह भेद रुक्मिणी निज मुख काहू कहि न सुनायो ॥ हरि आगमन जानिकै भीषम आगे लेन सिघायो । सूरदास प्रभु दरंशण कारण नगर लोग सब धायो ॥ आसावरी ॥१६॥ देख रूप सब नगरेक लोग । वारंवार अशीश देत सब यह वर वन्यो रुक्मिणी योग ॥ जो कछु चतुराई विधनामों जानत युगरस रीति । तो अजहूं लौं राजसुतापति हरिद्वैहै शिशुपालहि जीति ॥ जो राजा कौतुक चलिआए ते मुख निरखि कहतहैं वात । परत न पलक चकोर चंद्रलौं अवलो । कत लोचन अकुलात ॥ मनसाको हीता जगजविन सुंदर वर वसुदेवकुमार । सूरदास जाके जिय जैसी हरिकीन्हें तैसो व्यवहारा ॥१७॥ सखी वचन रुक्मिणी प्रति सूही ॥ विलावल ॥ सोच सोच तू डारउठि देख दीनदयालु आयो । निरखि लोचन प्रणत मोचन कुँवार फल वांछो सो पायो । सुनत भइ अकुलाइ ठगढी ज्यों मृतक विधि दै जिवायो । चढि सदन वह वदन की छवि परखि दीनो दव बुझायो । ले वलाइ सुकर लगायो निरखि मंगलचार गायो। नैन आरति अयं आंसू पुहुप तन मन धन चढायो । जानि हौं ब्रजनाथ जियकी कियो सो जो तुम बतायो । अपहरन पुन वरन वंश हार जानि हौं केहि योग भायो । भक्तके वश भक्तवत्सल विदुर सातोसाग खायों ॥ मुदित । बैंगई गौरि मंदिर जोरि कर बहु विधि मनायो ॥ प्रगट तेहि छिन सूरके प्रभु वाह गहि कियो वाम भायो । कृपासागर गुणन आगर दासि दुख दीनहि विहायो१८॥ रुक्मिणी हरन ॥ आसावरी ॥रुक्मिणी देवी मंदिर आई । धूप दीप पूजा सामग्री अली संग सब ल्याई ॥ रखवारीको बहुत महाभट