कृपा भगवान उपाउ नसूर अपाना ॥८३॥ गौरी ॥ हमारे श्याम चलन कहत हैं दूरी। मधुवन वसत । आशहुती सजनी अव मरिहैं जु विसूरी ॥ कौने कहौं कौन सुनि आई किहि रुख स्थकी धूरि । संगहि सबै चलौ माधवके नातौ मरिहौं रूरि ॥ दक्षिणदिशि यह नगर द्वारका सिंधुरह्यो जलपूरि । सूरदास प्रभु विनु क्यों जीवों जात सजीवन मूरि ॥८२॥ गोपिका विरह ॥ धनाश्री ॥
नैना भये अनाथ हमारे । मदन गोपाल वहाँ ते सजनी सुनियत दरि सिधारे ॥ वै जलहर हम मीन वापुरी कैसे जिवहिं निनारे । हम चातक चकार श्यामवन बदन सुधानिधि प्यारे ॥ मधुवन वसत आश दरशनकी जोइ नैन मगहारे । सूरश्याम करी पिय ऐसी मृतकहुते पुनि मारे ॥८३॥ धनाश्री ॥ अब निज नैन अनाथं भये । मधुवन हुते माधो सजनी कहियत दूरिगये ॥ मथुरा वसत हुती जिय आशा यह लागत व्यवहार । अव मन भयो भीमके हाथी सुपने अगम अपार ॥ सिंधुकूल इक नगर वतावत ताहि द्वारका नाउँ । यह तनु सौपि सूरके प्रभुको और जन्मधरि जाउँ । उती दूरते को आवैरी। जासोंसंदेश कहि पठऊं इहांते सो कहि कहन कहाँ पावैरी ।। कंचनके बहुभवन मनोहर राजा रंक न तृण छावैरी । वहांके वासी लोगनको क्यों ब्रजको वसिवो भावैरी ॥ सिंधुकूल इक देश वसतहै देख्यो सुन्यो न मन धावैरी । बहुविधि करत विलाप
विरहिनी अनेक उपाय दुःख पावैरी । कहा करौं कहां जाउँ सुरप्रभु कोहरि पिय पहुँचावै ॥८४॥॥ राग सारंग ॥ हौं कैसकै दरशन पाऊँ । सुनहु पथिक वहिदेश द्वारका जो तुम्हरे सँग आऊं । वाहिर भीर बहुत भूपनकी बूझत बदन दुराऊ । भीतर भीर भोग भामिनिकी तेहि कौन पठाऊं ॥ बुधि वल युक्ति जतन करि वहिपुर हरि पियपै पहुँचाऊं । अब बन बसि निकुंजरसि कविन कौनहिं दशा सुनाऊं ॥ श्रमकै सुर जाउँ प्रभुपासहि मनमें भले मनाऊ । नवकिशोर
मुख मुरली विना इन नैनन कहा देखाऊं ॥८५॥ नट ॥ मानो विधि अब उलटि रचीरी । जानति नहीं सखी काहेते वही नतेजतचीरी ॥बाड नमुई नीर नैननके प्रेम नप्रजरि पचीरी । विरह अग्नि अरु जलप्रवाहते क्यों दुहुँचीच वचीरी ॥ जो कछु सकल लोककी सोभा लै द्वारका सचारी । वहां किवारिधि वडवानलमे रेतनआनि वचीरी ॥ कहिये संकर्षण के भ्राता कीटनि कितनमचारी । सुरश्याम या जग मोटो सोई मुख निरखि नचीरी ॥८६॥ मारू ॥ ओ नहीं माईको इतौ । सुनरी सखी संदेशदुर्लभ भए नैन थके मग जोइतो । गोकुल छांडि निवास सिंधु कियो प्राण जीवन । धनसोइतौ ॥ द्वारावती कठिन अति मारग क्योंकार पहुंचे लोइतो। मिटी मिलनकी आशंअवधि गई व्रजवनिता कहि रोइतौ॥ सूरदास प्रभु तुम्हरे मिलनको त्रिपति कहूं नहि होइतो ॥८७॥॥ मलार ॥ तातें अब अति मरियत अपसोसनि ॥ ८७ ॥ मथुराहूते गए सखीरी अब हार कारें कोसनि ॥ यहअचरज सुबडो मेरे जिय यह छांडनि वह योप्सनि । निपट निकाम जानि ।
हम छांडी-ज्यों कमानविन गोसंनि ॥ इकु हरिके दरशन विनु मरियत अरु कुविजाके ठोसनि । सूर सुजरनि कहा उपजी जो दूरि होत करि वोसनि ॥ ८८ ॥ मारू ॥ जोपै लैजाइ कोऊ मोहि
द्वारका देशासंगत कै चलो सजनी जटाहू करि केश ।। वोलि धौ हर वाइ पूछह आप नेरू मेस । जैसही जो कहै कोऊ वनैं तैसे भेसायदपि हम ब्रजनाथ युवती यूथनाथ नरेशातदपि शशि कुमुद । नी सूरज रची प्रीति परेस ॥८९॥ सारंग ॥ उपरि आयो परदेशीको नेहातव जो सवै मिले कान्ह ॥ कार भूलत ही अवलेह काहेको सखी अपनो सरवस हाथ पराये देहलिहियो महिमा भंग मथुरा छाडि जाइ समुद्र कियो गेहु ॥ कहा अब करी आणि तनु उपजी बाढयो अतिहि संदेहु । सूरदास
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सूरसागर।
