पृष्ठ:सूरसागर.djvu/६८१

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. . . सूरसागर। (५८८) कृपा भगवान उपाउ नसूर अपाना।।८३॥ गौरी ॥ हमारे श्याम चलन कहत हैं दूरी। मधुवन वसत । आशहुती सजनी अव मरिहैं जु विसूरी ॥ कौने कहौं कौन सुनि आई किहि रुख स्थकी धूरि । संगहि सबै चलौ माधवके नातौ मरिहौं रूरि ॥: दक्षिणदिशि. यह नगर द्वारका सिंधुरह्यो जलपूरि । सूरदास प्रभु विनु क्यों जीवों जात. सजीवन मूरि ॥ ८२॥ गोपिका विरह ॥ धनाश्री ।। नैना भये अनाथ हमारे । मदन गोपाल वहाँ ते सजनी सुनियत दरि सिधारे ॥वै जलहर हम मीन वापुरी कैसे जिवहिं निनारे । हम चातक चकार श्यामवन बदन सुधानिधि प्यारे॥ मधुवन वसत आश दरशनकी जोइ नैन मगहारे । सूरश्याम करी पिय ऐसी मृतकहुते पुनि मारे॥८३धनाश्री। अब निज नैन अनाथं भये । मधुवन हुते माधो सजनी कहियत दूरिगये ।। मथुरा वसत हुती जिय आशा यह लागत व्यवहार । अव मन भयो भीमके हाथी सुपने अगम अपार ॥सिंधुकूल इक नगर वतावत ताहि द्वारका नाउँ । यह तनु सौपि सूरके प्रभुको और जन्मधरि जाउँ । उती दूरते को आवैरी। जासोंसंदेश कहि पठऊं इहांते सो. कहि कहन कहाँ पावैरी ।। कंचनके बहुभवन मनोहर राजा रंक न तृण छावैरी। वहांके वासी लोगनको क्यों ब्रजको वसिवो भावैरी | सिंधुकूल इक देश वसतहै देख्यो सुन्यो न मन धावैरी । बहुविधि करत विलाप विरहिनी अनेक उपाय दुःख पावैरी।कहा करौं कहां जाउँ सुरप्रभु कोहरि पिय पहुँचावै॥४॥ ॥ राग सारंग ॥ हौं कैसकै दरशन पाऊँ । सुनहु पथिक वहिदेश द्वारका जो तुम्हरे सँग आऊं। वाहिर भीर बहुत भूपनकी बूझत बदन दुराऊ । भीतर भीर भोग भामिनिकी तेहि कौन पठाऊं ॥ बुधि वल युक्ति जतन करि वहिपुर हरि पियपै पहुँचाऊं । अब बन बसि निकुंजरसि कविन कौनहिं दशा सुनाऊं ॥ श्रमकै.सुर जाउँ प्रभुपासहि मनमें भले मनाऊ । नवकिशोर मुख मुरली विना इन नैनन कहा देखाऊं ॥ ८५॥ नटया मानो विधि अब उलटि रचीरी । जानति नहीं सखी काहेते वही नतेजतचीरी।। बाड नमुई नीर नैननके प्रेम नप्रजरि पचीरी । विरह अग्नि अरु जलप्रवाहते क्यों दुहुँचीच वचीरी ॥ जो कछु सकल लोककी सोभा लै द्वारका सचारी। वहां किवारिधि वडवानलमे रेतनआनि वचीरी.॥ कहिये संकर्षण के भ्राता कीटनि कितनमचारी। सुरश्याम या जग मोटो सोई मुख निरखि नचीरी ॥८६॥ मारू ॥ओ नहीं माईको इतौ । सुनरी सखी संदेशदुर्लभ भए नैन थके मग जोइतो । गोकुल छांडि निवास सिंधु कियो प्राण जीवन । धनसोइतौ ॥ द्वारावती कठिन अति मारग क्योंकार पहुंचे लोइतो। मिटी मिलनकी आशंअवधि गई व्रजवनिता कहि रोइतौ॥ सूरदास प्रभु तुम्हरे मिलनको त्रिपति.कहूं नहि होइतो ॥८॥ ॥ मलार ॥ तातें अब अति मरियत अपसोसनि ।। ८७ ॥ मथुराहूते गए सखीरी अब हार कारें कोसनि ॥ यहअचरज सुबडो मेरे जिय यह छांडनि वह योप्सनि । निपट निकाम जानि । हम छांडी-ज्यों कमानविन गोसंनि ॥ इकु हरिके दरशन विनु मरियत अरु कुविजाके ठोसनि । सूर सुजरनि कहा उपजी जो दूरि होत करि वोसनि. ॥ ८८ ॥ मारू ॥ जोपै लैजाइ कोऊ मोहि द्वारका देशासंगत कै चलो सजनी जटाहू करि केश ।। वोलि धौ हर वाइ पूछह आप नेरू मेस। जैसही जो कहै कोऊ वनैं तैसे भेसायदपि हम ब्रजनाथ युवती यूथनाथ नरेशातदपि शशि कुमुद ! नी सूरज रची प्रीति परेस ॥ ८९॥ सारंग ॥ उपरि आयो. परदेशीको नेहातव जो सवै मिले कान्ह ।। कार भूलत ही अवलेह काहेको सखी अपनो सरवस हाथ पराये देहलिहियो महिमा भंग मथुरा, छाडि जाइ समुद्र कियो गेहु ॥ कहा अब करी आणि तनु उपजी बाढयो अतिहि संदेहु । सूरदास ।