पृष्ठ:सूरसागर.djvu/६९२

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श्रीः। अथ सूरसागर. द्वादशस्कन्ध। राग बिलावल ॥ हार हरि हरि हरि सुमिरन करो । हरि चरणार्विद उर धरो॥ शुकदेव हरि चरण न शिरनाइ । राजासों वोल्यो या भाइ ॥ कहौं हरि कथा सुनो चितलाइ । सूर तरो हरिके गुणगाय ॥१॥ बौद्धावतार वर्णन ॥ राग बिलावल | हरि हरि हरि हरि सुमिरन करो। हरि चरणाविद उरधरो। बौद्ररूप जैसे हरि धारयो । अदिति सुतनको कारज सारयो । कहाँ सो कथा सुनो चित धार ॥ कह सुनै सो तरै भवपार ॥ असुर एक समय शुक्र पै जाइ । को सुरन जीते केहि भाइ । शुक्र कह्यो तुम जग विस्तरो। करिकै यज्ञ सुरनसों लरो। याही विधि तुमरी जय होइ ।। या विनु और उपाय न कोइ ॥ असुर शुक्रकी आज्ञा पाइ । लागे करन यज्ञ बहु भाइ॥ तव सुर सब हरि जू पै जाइ । कह्यो वृत्तांत सकल शिरनाइ ॥ हरिजू तिनको दुःखित देख । कियो तुरत सेवरिको भेप । असुरन पास बहुरि चलि गए । तिनसों वचन ऐसी विधि कए । यज्ञ माहिं तुम पशुन यो मारत । दया नहीं आवत संहारत ॥ अपनो सो जीव सबको जानि । कीजै नहिं जीवनकी हानि ॥ दया धर्म पाले जो कोइ । मेरी मति ताकी जय होइ । यह सुन असुरन यज्ञ त्यागि । दया धर्म मारग अनुरागि ॥ या विधेि भयो बुद्ध अवतार । सूर कह्यो भागवत अनुसार ॥२॥ भविष्य कल्की अवतार वर्णन ॥ राग बिलावल ॥ हरि हरि हरि हरि मुमिरन करो। हरि चरणार्विद उरधरो ॥ हरि करिहैं कलंकि अवतार । जेहि कारण सो कहों चितधार॥ कलिमें नृप होइ हैं अन्याई । कृपि आइहैं सव लेहैं बरिआई।झूठे नरसों लेहिं अंकोर । लावहि सांचे नरको खोर ॥ प्रजाधर्मरत होइ नर कोइ । वरन धर्म न पहिचानै सोइ ।। दूरि तीर्थन श्रम करि जाहिं । जहां रहैं तहां लख्यो न ताहि ॥ जाके गृहमें प्रतिमा होइ । तिन तजि पूजै अनतै सोइ ॥ ब्राह्मण पूँछे जान्यो जाइ । संन्यासी फिरै भेप बनाइ ॥ गृही न अपनो धर्म पहिचान । उन नहिं आए को सन्मानै ॥ दया सत्य संतोप नशाइ । दया धर्मकी रीति विलाइ ॥ फल सुधर्मको जाने सोइ । पै सुधर्मको करै न कोइ ॥ पापनको फल चाहै नाहीं। अहनिशि पाप करतही जाहीं ॥ व समै न वा होइ । विना अन्न दुख पावै लोइ॥ दान देहि तो यशके काज । कलि न होइ पृथ्वीपति राज ॥ मन इन्द्रिय वश करें न लोग। ज्यों त्यों कीन्हों चाहे भोग ॥ शत सम्वत मायुः कुल होइ । सोऊ जीवै बिरला कोइ ।। नृप ऐसे आयुर्दा पाई। पृथ्वी हित नित करें उपाई ॥ पृथ्वी देखि तिन हांसी करही। ऐसो को जो मो पर रहही ।। मन्वंतर लगि कियो जेहि राज । तेऊ नृप गय मोहिं त्याज ॥ पृथु से पृथ्वीपति जग भए । तेऊ नृप छाड मोहि गए ॥ तुच्छ आयु परिश्रम करत । आपु आयुमें लरि लार मरत ॥ इनहिं देखि मोहिं हांसी आवत । इनको इतनी समुझि न आवत ॥ सतयुग सत त्रेता जग करते । द्वापर पूजा मनमें धरते । कलियुग एक बड़ो उपकार । जो हरि कहै सो उतरै पार ॥ कलिमें पाप करै नित लोइ । कहांलगि करिये अंत नहोइ ॥ हरि हरि कहत पाप पुनि जाइ । पवन लागि ज्यों सूइPage:सूरसागर.