पृष्ठ:सूरसागर.djvu/७७

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- nance (२४) • सूरसागर-सारावली। पुरुषोत्तम व्यापक कोटि ब्रह्मंड ॥ ६८३ ॥ शिव विरंचि सनकादि महामुनि शेप सुरेश दिनेश ॥ इन सवहिन मिलि पार न पायो द्वारावती नरेश ॥ ६८४ ॥ तुम्हरे चरण कमलकी महिमा जानत, त्रिपुरारीप्रकट गंग पावन चरणनते ताहि रहंत शिरधारि ॥ ६८५॥ पुनि गौतम घरणी जानतहैं नावक शवरीजान । उद्धव विदुर युधिष्ठिर अर्जुन अरु भीषमसुर ज्ञान ॥ ६८६॥ हनूमान अरु भक्त विभीषण चरणकमल रज मांगी । सोई कृपा करो करुणानिधि मांगतहौं अनुरागी ॥ ६८७ ॥ यह कहिकै मुनिलोक सिधारे बीणवजाय। रिझाय । ब्रह्मलोक पहुँचे छिनहीमें हरि आज्ञाको पाय ॥ ६८८ ॥ पहिलोपुत्र रुक्मिणी जायो प्रद्युम्न नाम धरायो । कामदेव प्रगटे हरिके गृह पहिले रुद्र जरायो । ६८९ ॥ नारद जाय कह्यो शंवरसों तव रिपु वपु धरि आयो । वेग उपाय करो मारनको प्रगट द्वारका जायो।। ६९० ॥ तंव शंबर भयभीत द्वारका गयो तुरत त्यहि काल । हारको चक्रदेख रखवारी व्याकुल भयो बिहाल ॥ ६९१ ॥ तब नारदमुनि आय चक्रसों वात करन ठहरायो । इतने मांझ पुत्रले भाज्यो निधिमें जाय दुरायो ६९२ ॥ एक मीनने भक्ष कियो तब हरि रखवारी कीनी । सोई मत्स्य पकरि मोधुकने जाय असुरको दीनी ॥६९३ ॥ तब उन कह्यो पाकशालामें अवहीं यह पहुँ चाओ। चीरयो उदर पुत्र तब निकस्यो उन जान्यो मम नाओ।। ६९४ ॥नारद कह्यो यही तव पतिहै याकू वेग बढाय । जौलौं वडो होय तौलौं यह असुरन मतिहि देखाय ।।६९५॥ सेवा कीनी बडेभये जब समरथ विपुल उदारामहावली बलराम कृष्ण सुत कीन्हों असुर संहार ॥६९६॥ मार असुरको आय द्वारका कृष्णचरण शिरनायोभीतर गये नये रुक्मिणिको सवहिन कंठ लगायो६९७ वर अरु वधू आय जब जाने रुक्मिणि करत बधाई । रति अरु काम प्रकट तादिनते कवि मिलि कीरति गाई ॥ ६९८ ॥यहिविधि केलि करत द्वारावति पूरण परमानंद । महिमा सिंधु कहांलग वरणे सूर जु कवि मति मंद ॥ ६९९ ॥ पुनि अनिरुद्ध भेदनारदकें चित्ररेखा हरिलीन्हों। चारवर्ष अरु चारमासलौं ऊषाको सुखदीन्हों।।७००॥तव हरि जाय संगहलधरलै सब यादव दल जोरासमै भुजाकार दूर असुरकी चार हाथ दियछोर ॥ ७०१ ॥ आय रुद्ध पक्ष करि ताको युद्ध करन हरिसाथ । छिनमें जीति वधूसुत लैक आय द्वारकानाथ ॥ ७०२॥ पुनि यक दिवस सुधर्मा बैठे यादव सभा अपार । उग्रसेन वसुदेव सात्यकी अरु अकरउदार ॥ ७०३ ॥ इतने मांझ दूत यक आयो सवहिन कहि समुझायो । वासुदेव नृप आज्ञा करके मोको वेगि पठायो ॥ ७०४ ॥ वासुदेव यह कहत वेदमें प्रकट ब्रह्म अवतार । सोतो मैंही प्रकट भयो भुव यहि विधि बन्यो अपार ॥ ७०६ ॥ क्षणमें जाय तुरत हरि मारयो दीन्हीं मुक्ति कृपाल । फेर द्वारका तुरत पधारे गरुडचढ़े गोपाल ॥ ७०६ एक दुष्ट ने बहुत कियो तप सो रीझे त्रिपुरार । तब शिवने उन कृत्या दोन्ही बाटो क्रोध अपार ॥७०७ ॥ कृत्याचली जहां द्वारावति हरिजानी यह वात । आज्ञाकरी चक्रको माधव छिन कृत्याकर घात ॥ ७०८ ॥ काशजिाय जराय छिनकमें गये द्वारकाफेर । अति आनन्द परम सुखसों सब दिन वीततरसटेर ॥ ७०९॥ पुनि कुरुक्षेत्रगये यादवमिलि कियो तीर्थ स्नान । यज्ञ होम करि पितर देवता विप्रनको बहु दान ॥ ७१० ॥ सूरज ग्रहण नृपन बहु जान्यो आय जुरी सब भीर। दर्शन भयो सवनको हरिको मियो ताप तनुपीर ॥७११॥ भीष्म द्रोण अरु कर्ण. युधिष्ठिर | | भीमार्जुन सहदेव । कुंती नकुल और गान्धारी कृपी विदुर सहदेव ॥ ७१२॥ दुर्योधन सब भात | - -