पृष्ठ:सूरसागर.djvu/७८

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सूरसागर-सारावली। (२५) संगलै धृतराष्ट्राहे लै आयो । नारद गौतम वाल्मीकि मुनि हरि दर्शन हितं धायो ॥ ७१३ ॥ भारद्वाज मरीचि अंगिरा अत्रेमुनी अनंत । पुलह पुलस्त्य अगस्त्य कश्यप पुनि अरु सनकादिक संत ॥ ७१४ ॥ हरिको दर्शन करि सुख पायो पूजा बहु विधि कीन्हीं । अति आनंद भये तन मनमें सौज बहुत विधि दीन्हीं ॥ ७१५ ॥ ब्रजवासी सब सखा संगके यशुमति अरु ब्रजराज । दर्शनपाय बहुत सुख पायो सफल भये सबकान ॥ ७१६ ॥ यशुमति मात उछंग लगाये पल मोहनको आय। बाल भाव जिय में सुधि आई स्तन चले चुचाय ॥ ७१७ ॥ गोपि न देखि कान्हकी शोभा बहुतहि मन सुखपायो । सघन निकुंज सुरत संगम मिलि मोहन कंठ लगायो ॥ ७१८॥ रुक्मिणि कहत कमल लोचन सौ राधा हमैं देखायो । जाकी नित्य प्रशंसा तुम करि हम सबहिन कुसुनायो ॥ ७१९ ॥ तब वृपभानुसुता पगधारी रानिन मंडल मांझ। मनो सरस इन्दीवर फूले ता माधि फूली सांझ ॥ ७२० ॥ देख तेज वृपभानुसुताको सबै भई छवि हीन । अति आनन्द मोद मन मान्यो हमहिं कृतारथ कीन ।। ७२१ ॥ तब हरि को मोहि राधा विन पळ क्षण कछु न सोहाय । सुनो रुक्मिणी कथा घोपकी मोपै कहिय न जाय ॥७२२॥ एक दिना वनमें इन मोको अपनो सुधा पिवायो। ताके वल गिरि गोवर्द्धन ले अपने हाथ उठायो।। ॥ ७२३ ॥ अरु काली धेनुक दावानल प्रकट पूतना आई । इनकी कृपा सकल विघ्ननको छिनमें दिये नशाई ॥ ७२१॥ भांति भांति करि मोहिं लडायो सपन कुंजमें जाय । ताकी कथा कहों कह तुमसे मोपै कहिय न जाय ।। ७२५ ॥ रास केलि करि क्रीडा कीन्हीं होरी खेल खिला यो। मटुकि छुड़ाय लियो दधि परसत तउ कछु मन नहिं आयो । ७२६॥ रत्नजटित पर्यक द्वारका पीढ़त हैं सुखधाम । तोह इनको ध्यान करतही पीतत है सब याम ॥ ७२७॥ इन विन मोहि कळू नहि भावे नन्दरायकी आन । सुनो रुक्मिणी लोचनमें ए वसी रहें मम प्राण ॥७२८।। जागत सोवत अरु वन डोलत भोजन करत विहार । ध्यान करत नखशिख इनहींको बसि द्वारका मॅझार ॥ ७२९ ॥ तव मिलिरंग बहुत भांतिनसों कीन्हें विपुल विहार । ब्रजजन चले सकल गोकुलको दीन्हें दान अपार ॥ ७३०॥ चले द्वारका यदुकुल सब मिलि भयो कुलाहल भार। पहुँचे आय द्वारका सन्मुस घर पर मंगलचार ॥ ७३१ ॥ कियो विचार यज्ञको राजा राजसूय जियजानि । कृष्णचन्द्रको बेगि बुलाओ संग सकल पटरानि ॥ ७३२ ॥ आये इंद्रप्रस्थ सब यदुकुल महा महोत्सव मान । जुरेभूप बहु सकल देशके हरिदर्शन जिय जान ॥ ७३३ ॥ चारों भ्रात चारि दिशि जीतो भारत कही वखान । ठोर ठौरके नृप सब आये ले उपहार प्रमान/७३४॥ बड़ो यज्ञ राजसूय रचायो जुरे विप्र यह भारी। महाभाग्य राजा जु युधिष्ठिर जहँ माधव अधि कारी ।। ७३५ ॥ सबहिन को प्रथम पूजा अब कहो कौनकी कीजै । सबमें बडो कौन भूपति हे जाहि अर्चना दीजै ।। ७३६ ॥ तव सहदेव कह्यो सबहिनसों सुनो नृपति मनलाय.। पूजा योग प्रकट पुरुपोत्तम कृष्णचन्द्र यदुराय ॥ ७३७॥ सवहिन कह्यो साधु यह पाणी सुर मुनि मनुज सराई । यक शिशुपाल दुष्ट नृप कहिये सुनतहि उठ्यो रिसाई ।। ७३८॥ गोकुल नंद अहीर गोप गृह पय पियके यह जीयो । दधि जु चुराय खाय वृन्दावन चरित विपम बहु कीयो ।।७३९ ॥ || मातुल मारि बहुत अघकीन्हे कहाँलों करों बढ़ाई। वृन्दावन गोवर्धन कुंजन लूटी नारि पराई॥ ।। ॥७४० ॥ वन वन गाय परावत डोलत कांध कमरिया राजै । लकुटी हाथ गरे गुंजमाला अधर मुरलिका वाजे ।। ७४१॥ ऐसे ख्याल करे इन बहु विधि कहत जु आवे लाज । वेद विदित सुर - -