पृष्ठ:सूरसागर.djvu/९६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

प्रथमस्कन्ध-१ 'राग धनाश्री । हरिसों मीत न देखौं कोई । अंतकाल सुमिरत तेहि अवसर आनि प्रतीक्षो होई। ग्राह गहे गजपति मुकरायो हाथ चक्रलै धायो। तजि वैकुंठ गरुड़ तजि श्री तजि निकट दासके आयो। दुर्वासाको शाप निवारयो अंबरीष पति राखी । ब्रह्मलोक पर्यंत फिरयो तहँ देव मुनी जन साखी ॥ लाखागृहते जरत पांडुसुत बुधि वल नाथ उवारे। सूरदास प्रभु अपने जनके नाना त्रास निवारे॥९॥ राग धनाश्री ॥ राम भक्तवत्सल निज बानो । जाति गोत कुल नाम गनत नहिं रंक होयकै रानो । ब्रह्मादिक शिव कौन जात प्रभु हौं अजान नहिं जानो।महता जहां तहां प्रभु नाही सो द्वैता क्यों मानो॥ प्रगट खंभ तै दई दिखाई यद्यपि कुलको दानो। रघुकुल राघो कृष्ण सदाही गोकुल कीनो थानो ॥ वरणि न जाय भजन की महिमा बारम्बार वखानो। ध्रुव रजपूत विदुर दासी सुत कौन कौन अरगानो ॥ युग युग विरद यहै चलि आयो भक्तन हाथ विकानो । राज- सूय में चरण पखारे श्याम लये कर पानो ॥ रसना एक अनेक श्याम गुण कहलौं करों वखानो। सूरदास प्रभुकी महिमा है साखी वेद पुरानो ॥१०॥ राग विलावळ ॥ काहूके कुल तन न विचारत। अविगत की गति काहि न परतुहै व्याध अजामिल तारताकौन धौ जाति अरु पांति विदुरकी ताहीके प्रभु धारत । भोजन करत तुष्ट घर उनके राज मान भंग टारत ।। ऐसे जन्म करमके ओछे ओछेही अनुसारत । यहै सुभाव सूरके प्रभुको भक्त वछल प्रण पारत ॥ ११॥ राग सारंग ॥ गोविंद प्रीति सवनकी मानत ॥ जेहिं जेहिं भाय करी जिन सेवा अंतर्गत की जानत शिवरी कटुक वेर तजि मीठे भापि गोद भरि लाई। जूंठेकी कछु शंक न मानी भक्ष किये सतभाई।संतन भक्त मित्र हितकारी श्याम विदुरके आये। अतिरस वाढो प्रीति निरंतर साग मगन 8 खाये। कौरव काज चले ऋपि शापन साग पत्रही अपाये। सूरदास करुणानिधान प्रभु युग युग भक्त बढ़ाये ॥ १२ ॥ राग राम फली ॥ शरण गये को को न उवारचौ । जव जव भीर परी संतन को चक्रसुदर्शन तहां संभारयौ। भयो प्रसाद जु अंबरीप को दुर्वासाको क्रोध निवारयौ । ग्वालन हेतु धरयौ गोवर्धन प्रगट इन्द्र को गर्व प्रहारयो॥ कृपाकरी प्रहाद भक्त को खंभ फारि उर नखन विदारयो । नरहरि रूप धरयो करुणाकार छिनक माहिं हरनाकुश मारयो। ग्राह ग्रसत गजकोजल बूड़त नामलेत वाको दुख टारयो । सूरश्याम विनु और करैको रंगभूमिमें कंस पछारयो॥ १३॥ राग केदारा । जनकी और कौन पत राखै । जाति पांति कुल कानि न मानत वेद पुराणनि साखै॥ जेहिकुल राज द्वारका कीनो सो कुल शापत नाश्यौ ॥ सोइ मुनि अंबरीप के कारण तीन भुवन भ्रमित्रास्यौ ॥ जाको चरणोदक शिव शिर धरयो तीन लोक हितकारी ! तिन प्रभु पांडुसुतनके कारण निजकर चरण पखारी॥वारह बरस वसुदेव देवकी कंस महा डर दीन्यों । तिन प्रभु प्रहादीहं सुमिरत ही नर हरि रूप जु कीन्योजग जानत यदुनाथ जिते जन निज भुज श्रम सुख पायो । ऐसो को जो शरण गये ते कहत सूरं इतरायो ॥ १४॥ राग रामकली ॥ और न काहू जनकी पीर । जब जब दीन दुखी भयो तब तब करी कृपा बलवीर ॥ गज वल हीन विलोकि दशौ दिशि तव हरि शरण परयो॥ करुणासिंधु दयालु दरश दै सब संतापं हरयो।गोपी गाइ ग्वाल गो सुत हित सात दिवस गिरि लीनो। मागध हन्यो मुक्त नृप कोने मृतक विप्र सुत दोनो ॥ श्री सिंह वपु धरयो असुर हित भक्त वचन प्रति पारयो । सुमिरत नाम दुपदतनयाको पट अनेक विस्तारयो॥ मुनि मद मेटि दास व्रत राख्यो अंवरीप हितकारी । लाषा गृहमें राज सैनते । पांडव विपति निवारी । वरुण फांस ब्रजपति मुकरायो दावानल, दुखाटारयो घर आए-वसुदेव