पृष्ठ:सूरसागर.djvu/९७

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सूरसागर। - देवकी कंस महाखल मारयौ ॥ श्रीपति युग युग सुमिरनके वश देव विमल यश गावै । अशरण : शरण सूर यांचतहै को जो सुरति करावें ॥ १५॥ राग केदारा ॥ ठकुरायत गिरिधर जूकी सांची कौरव जीति युधिष्ठिर राजा कोरति तीन लोक में माची॥ ब्रह्म रुद्र डर डरत कालके काल.डरत.. भ्रुव अंग की आंची। रावण सों नृप जात न जान्यो माया विपम शीश धरि नाची | गुरुसत आनि दये यमपुरते विप्र सुदामा कियो अयाची । दुःशासन कर वसन छुड़ावत सुमिरत नाम.. द्रौपदी बांची ॥ हरि चरणाविद तजि लागत अनत कहूं तिनकी मति कांची । सूरदास भगवंत । भजत जे तिनकी लीक चहूं युग खांची ॥ १६ ॥ भक्त महिमा । राग सारंग ॥ हरिके जन सवते. | अधिकारी। ब्रह्मा महादेवते को बड़ तिनके सेवकभ्रमत भिखारी याचक पै याचक कहा याचे सो.. याचै सो रसना हारी। गणिका पूत सोम नहिं पावत जिन कुल कोऊ नहीं पितारी।तिनकी साप ! देखि हरनाकुस रावण कुटुंब समेत भे ख्वारी । जन प्रह्लाद प्रतिज्ञा पाली विभीषण सु अंजाँ.. राजारी ॥ शिला तरी जल माहिं सेतु बँधि बलिं वहि चरण अहल्या तारी । जे रघुनाथं शरण तकि आये तिनकी सकल आपदा टारी॥ जिन गोविंद अचल ध्रुव राख्यो रवि शशि दै प्रदक्षिणा..। हारी। सूरदास भगवंत भजन वितु धरनी जननि वोझ कत मारी ॥ १७॥राग सारंग। जापर दीना. नाथ ढरे । सोइ कुलीन बड़ो सुन्दर सोइ जिनपर कृपा करे॥राजा कौन बड़ो रावणते गर्वहिं गर्व गरे । रांकव कौन सुदामाहू ते आपु समान करे ॥ रूपव कौन अधिक सीताते जन्म वियोग भरे।। अधिक कुरूप कौन कुविजाते हरि पति पाइ बगायोगी कौन बड़ो शंकरतेताको काम छरे। कौन.] विरक्त अधिक नारदसों निशि दिन भ्रमत फिअधम सुकौन अजामिलहते यम तह जात डरै।। सूरदास भगवंत भजन विन फिर फिर जठर जरै॥१८॥राग देवगंधार ॥ जाको मनमोहन अंग करें। ताको केश खसै नहिं शिरते जो जग वरै पहिरनकशिपु परिहार-थक्यो प्रल्हाद न नेकु डरै। अजहूं तौ उत्तानपाद सुत राज्य करत न मरै ॥ राखी लाज द्रुपदतनयाकी कोपित चीर हरै । दुर्योधन को मान भंग करि वसन प्रवाह भरै।।विप्र भक्त ग अंध कूप दियो बलि पढ़ि वेद छरै। दीन दया- लकपाल कृपानिधि कापै करो परै ॥ जो सुरपति कोप्यो ब्रज ऊपर कहिधों कछु न सरै । राखे ब्रज जन नंदके लाला गिरिधर विरद धरै॥ जाकी विरद है गर्वप्रहारी सो कैसे विसरै । सूरदास. भगवंत भजन करि शरण गहे उधरै ॥ १९ ॥ राग केदारा ॥जाको हरि अंगीकार कियो । ताके || कोटि विघ्न हरि हरिकै अभय प्रताप दियो॥ दुर्वासा अंबरीष सतायो सो हरि शरण गयो। पर- तिज्ञा राखी मनमोहन फिरि तापै पठयो॥ निकसि खंभते नाथ निरंतर अपनो राखि लियो । बहुत शासना दई प्रल्हादहिं ताहि निसंक कियो.॥ मृतक भये सब सखा जिवाये विष जल जाइ पियो । सूरदास प्रभु भक्तवछल हैं उपमा कौन दियो ॥२०॥ राग विलावल ॥ कहा कमी जाके राम धनी । मनसानाथ मनोरथ पूरण सुखनिधान जाको मौज धनी ॥ अर्थ धर्म अरु काम मोक्ष फलं चार पदारथ देत छनी । इन्द्र समान जाके हैं सेवक मो वपुरेकी कहा गनी ॥ कहा कृपणकी माया कितनी करत फिरत अपनी अपनी । खाइ न सकै खरच नहिं जानै ज्यों भुअंग शिर रहत मनी ॥ आनंद मगन राम गुण गावै दुख संताप की कारि तनी ।। सूर कहत जे भजत रामको तिनसों हरि सों सदा वनी ॥ २१॥ माया वर्णन । राग केदारा ॥ विनती सुनो दीनकी चित्त दै कैसे तव गुणः॥ | गावै । माया नटिनि लकुटि करलीने कोटिक नाच नचावै ॥ दर दर लोभ लागि ल्वै डोलीत नाना स्वांग करावै । तुमसों कपट करावति प्रभु जू मेरी बुद्धि भ्रमावै ॥ मन अभिलाष तरंगनि