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पृष्ठ:सेवासदन.djvu/१०२

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सेवासदन
११९
 


मूर्तिमान हो जाता है। कहीं बहुत दूर से उनके कान में आवाज आई वह जलसा न होता तो आज मैं अपने झोपड़े मे मग्न होती। इतने में हवा चली, पत्तियाँ हिलने लगी, मानो वृक्ष अपने काले, भयंकर सिरो को हिला हिलाकर कहते थे, सुमन की यह दुर्गति तुमने की है।

शर्मा जी घबरा कर उठे, देर होती थी? सामने गिरजाघर का ऊँचा शिखर था। उसमें घण्टा बज रहा था। घण्टे की सुरीली ध्वनि कह रही थी, सुमन की यह दुर्गति तुमने की।

शर्माजी ने बलपूर्वक विचारों को समेट कर आगे कदम बढ़या। आकाश पर दृष्टि पड़ी। काले पटल पर उज्ज्वल दिव्य अक्षरों में लिखा हुआ था, सुमन की यह दुर्गति तुमने की।

जैसे किसी चटैल मैदान में सामने से उमड़ी हुई काली घटाओं को देखकर मुसाफिर दूर अकेले वृक्ष की ओर सवेंग चलता है उसी प्रकार शर्माजी लम्बे लम्बे पग धरते हुए उस पार्क से आबादी की तरफ चले, किन्तु विचार चित्र को कहाँ छोड़ते? सुमन उनके पीछे पीछे आती थी, कभी सामने आकर रास्ता रोक लेती और कहती, मेरी यह दुर्गति तुमने की है। कभी इस तरफ से कभी उस तरफ से निकल आती और यही शब्द दुहराती। शर्मा जी ने बड़ी कठिनाई से उतना रास्ता तय किया, घर आये और कमरे में मुँह ढाँपकर पड़े रहे। सुभद्रा ने भोजन करने के लिए आग्रह किया तो उसे सिर दर्द का बहाना करके टाला। सारी रात सुमन उनके हृदय में बैठी हुई उन्हे कोसती रही, तुम विद्वान् बनते हो, तुमको अपने बुद्धि विवेक पर घमंड है, लेकिन तुम फूस झोपड़ों के पास बारूद की हवाई फुलझड़ियाँ छोड़ते हो। अगर तुम अपना धन फूंकना चाहते हो तो जाकर मैदान में फूंको, गरीब दुखियों का घर क्यों जलाते हो?

प्रात:काल शर्माजी विट्ठलदास के घर जा पहुँचे।

२०

सुभद्रा को संध्या के समय कंगन की याद आई। लपकी हुई स्नान घर में गई। उसे खूब याद था कि उसने यही ताक पर रख दिया था, लेकिन उसका