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सेवासदन
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चाहिये तो यह था कि मैं लज्जा से वहीं गड़ जाती, लेकिन मैंने इस पापभय के लिये इतनी निर्लज्जता से उनका तिरस्कार किया! जो लोग अपने कलुषित भावों से मेरे जीवन को नष्ट कर रहे है, उनका मैं कितना आदर करती हूँ। लेकिन जब, व्याधा पक्षी को अपने जाल में फँसते नहीं देखता तो उसे उस पर कितना क्रोध आता है! बालक जब कोई अशुद्ध वस्तु छू लेता है तो वह अन्य बालकों को दौड़ दौड़कर छूना चाहता है, जिसमें वह भी अपवित्र हो जायें। क्या मैं भी हृदयशून्य व्याधा हूँ या अबोध बालक?

किसी ग्रन्थकार से पूछिये कि वह एक निष्पक्ष समालोचक के कटुवाक्यों के सामने विचारहीन प्रशंसा का क्या मूल्य समझता है। सुमन को शर्माजी की यह घृणा अन्य प्रेमियों की रसिकता से अधिक प्रिय मालूम होती थी।

रात भर वह इन्ही विचारों में डूबी रही। मन में निश्चय कर लिया कि प्रातःकाल विट्ठलदास के पास चलूँगी और उनसे कहूँगी कि मझे आश्रय दीजिये। मैं आपसे कोई सहायता नहीं चाहती, केवल एक सुरक्षित स्थान चाहती हूँ, चक्की, पिसूंगी, कपड़े सीऊँगी, और किसी तरह अपना निर्वाह कर लूँगी।

सवेरा हुआ। वह उठी और विट्ठलदास के घर चलने की तैयारी करने लगी कि इतने में वह स्वयं आ पहुँचे। सुमन को ऐसा आनन्द हुआ जैसे किसी भक्त को आराध्यदेव के दर्शन से होता है। बोली, आइये महाशय! तो कल दिन भर आपकी राह देखती रही, इस समय आपके यहाँ जाने का विचार कर रही थी।

विठ्ठलदास--कल कई कारणों से नहीं आ सका।

सुमन--तो आपने मेरे रहने का कोई प्रबन्ध किया?

विट्ठल--मुझसे तो कुछ नहीं हो सका लेकिन पद्मसिंहने लाज रख ली। उन्होने तुम्हारा प्रण पूरा कर दिया। वह अभी मेरे पास आये थे और वचन दे गये है कि तुम्हे ५०) मासिक आजन्म देते रहेंगे।

सुमन के विस्मयपूर्ण नेत्र सजल हो गये। शर्माजीकी इस महती उदारता ने उसके अन्तःकरण को भक्ति, श्रद्धा और विमल प्रेम से प्लावित कर