दिया। उसे अपने कटु वाक्यों पर अत्यत क्षोभ हुआ। बोली, शर्माजी दया और धर्म के सागर हैं। इस जीवन में उनसे उऋण नहीं हो सकती। ईश्वर उन्हें सदैव सुखी रक्खें। लेकिन मैंने उस समय जो कुछ कहा था, वह केवल परीक्षा के लिये था। मैं देखना चाहती थी कि सचमुच मुझे उबारना चाहते है या केवल धर्म का शिष्टाचार कर रहे हैं। अब मुझे विदित हो गया कि आप दोनों सज्जन देवरूप है। आप लोगों को वृथा कष्ट नहीं देना चाहती मैं सहानभूति की भूखी थी वह मुझे मिल गई। अब मैं अपने जीवन का भार आप लोगों पर नही डालूँगी। आप केवल मेरे रहने का कोई प्रबन्ध कर दें जहाँ मैं विघ्न बाधा से बची रह सकूँगी।
विठ्ठलदास चकित हो गये। जातीय गौरव से आँखें चमक उठी। उन्होंने सोचा, हमारे देश की पतित स्त्रियों के विचार भी ऐसे उच्च होते है। बोले, सुमन तुम्हारे मुँह से ऐसे पवित्र शब्द सुनकर मुझे इस समय जो आनन्द हो रहा है, उसका वर्णन नही कर सकता। लेकिन रुपयों के बिना तुम्हारा निर्वाह कैसे होगा।
सुमन-मै परिश्रम करूँगी। देश में लाखों दुखियाएँ है, उनका ईश्वर के सिवा और कौन सहायक है? अपनी निर्लज्जता का कर आपसे न लूँगी।
विट्ठल-वे कष्ट तुमसे सहे जायेंगे?
सुमन--पहले नहीं सहे जाते थे, लेकिन अब सब कुछ सह लूँगी। यहाँ आकर मझे मालूम हो गया कि निर्लज्जता सब कष्ट से दुसह है। और कष्टों से शरीर को दुःख होता है, इस कष्ट से आत्मा का संहार हो जाता है। मैं ईश्वर को धन्यवाद देती हूँ कि उसने आप लोगों को मेरी रक्षा के लिये भेज दिया।
विट्ठल-सुमन, तुम वास्तव में विदुषी हो।
सुमन-तो मैं यहाँ से कब चलूँ?
विठ्ठल-आज ही। अभी मैंने आश्रम की कमेटी में तुम्हारे रहने का प्रस्ताव नहीं किया है, लेकिन कोई हरज नही है, तुम वहाँ चलो, ठहरो। अगर कमेटी ने कछ आपत्ति की तो देखा जायगा। हाँ, इतना याद रखना कि