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पृष्ठ:सेवासदन.djvu/१३८

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सेवासदन
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इस दुष्कर कार्य में सफल हो सकूँगा? बड़ो के सामने न्याय और सिद्धान्त की बातचीत असंगत-सी जान पड़ती है। भाई साहब के मन से बड़े बड़े हौसले है, इन हौसलों के पूरे होने में कुछ भी कसर रही तो उन्हे दुःख होगा। लेकिन कुछ भी हो, मेरा कर्तव्य यही है कि अपने सिद्धांत का पालन करें।

यद्यपि उनके इस सिद्धान्त पालन से प्रसन्न होनेवालों की संख्या बहुत कम थी और अप्रसन्न होने वाले बहुत थे, तथापि शर्माजी ने इन्ही गिने-गिनाये मनुष्यों को प्रसन्न रखना उत्तम समझा। उन्होने निश्चय कर लिया कि नाच न ठीक करूंगा। अपने घर में ही सुधार न कर सका तो दूसरों को सुधारने की चेष्टा करना बड़ी भारी धूर्तता है।

यह निश्चय करके शर्माजी बारात की सजावट सामान जुटाने लगे। वह ऐसे आनन्दोत्सवों में किफायत करना अनुचित समझते थे। इसके साथ ही वह अन्य सामग्रियों के बाहुल्य से नाच की कसर पूरी करना चाहते थे, जिसमें उनपर किफायत का अपराध न लगे।

एक दिन विट्ठलदासने कहा, इन तैयारियो में आपने कितना खर्च किया?

शर्मा—इसका हिसाब लौटने पर होगा।

विट्ठलदास--तब भी दो हजार से कम तो न होगा।

शर्मा—हाँ, शायद कछ इससे अधिक हो।