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पृष्ठ:सेवासदन.djvu/१८३

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सेवासदन
 


दोपहर हो गया था, लेकिन पद्मसिंह को भूख प्यास न थी। बग्घीपर बैठकर चले। कुंवर साहब बरुना-किनारे एक बंगले में रहते थे। आध घंटे में जा पहुंचे।

बंगले के हाते में न कोई सजावट थी, न सफाई। फूलपत्ती का नाम न था। बरामदे में कई कुत्ते जंजीर में बँधे खड़े थे। एक तरफ कई घोड़े बंधे हुए थे। कुंवर साहब को शिकार का बहुत शौक था। कभी-कभी काश्मीर तक का चक्कर लगाया करते थे। इस समय वह सामने कमरे में बैठे हुए सितार बजा रहे थे। दीवारो पर चीतो की खाले और हिरनो के सीग शोभा दे रहे थे। एक कोने में कई बन्दूकें और बरछियाँ रखी हुई थी; दूसरी ओर एक बड़ी मेजपर एक घड़ियाल बैठा था। पद्मसिंह कमरे में आये तो उसे देखकर एक बार चौंक पड़े। खालमें ऐसी सफाई से भूसा भरा गया था कि उसमें जानसी पड़ गयी थी।

कुंवर साहब ने शर्माजी का बड़े प्रेम से स्वागत किया——आइये महाशय, आपके तो दर्शन दुर्लभ हो गये। घरसे कब आए?

पझसिंह——कल आया हूँ।

कुंवर——चेहर उतरा है, बीमार थे क्या?

पद्म——जी नहीं बहुत अच्छी तरह हूँ।

कुंवर——जुछ जलपान कीजियेगा?

पद्म——नहीं क्षमा कीजिये, क्या सितार का अभ्यास हो रहा है?

कुंवर——जी हाँ, मुझे तो अपना सितार ही पसन्द है। हारमोनियम और प्यानों सुनकर मुझे मतलीसी होने लगती है, इन अंगरेजी वाजों ने हमारे संगीत को चौपट कर दिया, इसकी चर्चा ही उठ गई। जो कुछ कसर रह गई थी, वह थिएटरों ने पूरी कर दी। बस, जिसे देखिए गजल और कौवाली की रट लगा रहा है। थोड़े दिनो में धनुविद्या की तरह इसका भी लोप हो जायगा। संगीत से हृदय में पवित्र भाव पैदा होते है। जब से गाने का प्रचार कम हुआ, हम लोग भावशून्य हो गए और इसका सबसे बुरा असर हमारे साहित्यपर पड़ा हैं। कितने शोक की बात है कि जिस देश में रामायण