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पृष्ठ:सेवासदन.djvu/१९३

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सेवासदन
 


नहीं किया; तुमको तो मैंने अपनी प्रेम सपत्ति सौंप दी थी। क्या उसका तुम्हारी दृष्टि में कुछ भी मूल्य नहीं है?” सदन फिर चौक पड़ता और मन को उधर से हटाने की चेष्टा करता। उसने एक व्याख्यान में सुना था कि मनुष्य का जीवन अपने हाथों में है, वह अपने को जैसा चाहे बना सकता है, इसका मूल मन्त्र यही है कि बुरे, क्षुद्र, अश्लील विचार मन में न आन पावे, वह बलपूर्वक इन विचारों को हटाता रहे और उत्कृष्ट विचारों तथा भावों से हृदय को पवित्र रक्खे। सदन इस सिद्धांत को कभी न भूलता था। उस व्याख्यान में उसने यह भी सुना था कि जीवन को उच्च बनाने के लिये उच्च शिक्षा की आवश्यकता नहीं, केवल शुद्ध विचारों और पवित्र भावों की आवश्यकता है। सदन को इस कथन से बड़ा संतोष हुआ था इसलिये वह अपने विचारों को निर्मल रखने का यत्न करता रहता। हजारों मनुष्यों ने उस व्याख्यान में सुना था कि प्रत्येक कुविचार हमारे इस जीवन को न आने वाले जीवन को भी नीचे गिरा देता है। लेकिन औरों ने जो कुछ विज्ञ थे, सुना और भूल गये, सरल हृदय सदनने सुना और उसे गाँठ में बाँध लिया। जैसे कोई दरिद्र मनुष्य सोने की एक गिरी हुई चीज पा जाय और उसे अपने प्राण से सभी प्रिय समझे। सदन इस समय आत्म-सुधार की लहर मे बह रहा था। रास्ते में अगर उसकी दृष्टि किसी युवती पर पड़ जाती तो तुरन्त ही अपने को तिरस्कृत करता और मन को समझाता, क्या इस क्षणभर के नेत्र सुख के लिये तू अपने भविष्य जीवन का सर्वनाश किये डालता है। इस चेतावनी से उसके मन को शान्ति होती थी।

एक दिन सदन को गंगास्नान के लिए जाते हुए चौक में वेश्याओं का एक जुलूस दिखाई दिया। नगर की सबसे नामी गिरामी वेश्या ने एक उर्म(धामिक जलसा) किया था। यह वेश्याएँ वहाँ से वापस आ रही थी। सदन इस दृश्य को देखकर चकित हो गया। सौंदर्य, सुवर्ण, और सौरभ का ऐसा चमत्कार उसने कभी न देखा था। रेशम, रंग और रमणीयता का ऐसा अनुपम दृश्य, श्रृंगार और जगमगाहट की ऐसी अद्भुत छटा उसके लिए बिलकुल नई थी, उसने मनको बहुत रोका, पर न रोक सका। उसने उन