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पृष्ठ:सेवासदन.djvu/२०

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सेवासदन
२१
 


पर थोड़े ही दिनों में उसे इन कामों की आदत पड़ गई। उसे अपने जीवन में आनन्द सा-अनुभव होने लगा। गजाधर को ऐसा मालूम होता था मानों जग जीत लिया है। अपने मित्रो से सुमन की प्रशंसा करता फिरता। स्त्री नहीं है, देवी है। इतने बड़े घर की लड़की, घर का छोटे-से छोटा काम भी अपने हाथ से करती है। भोजन तो ऐसा बनाती है कि दाल रोटी में पकवान का स्वाद आ जाता है। दूसरे महीने मे उसने वेतन पाया तो सबका सब सुमन के हाथों में रख दिया। सुमन को आज स्वच्छन्दता का आनन्द प्राप्त हुआ। अब उसे एक एक पैसे के लिए किसी के सामने हाथ न फैलाना पड़ेगा। वह इन रुपयों को जैसे चाहे खर्च कर सकती है। जो चाहे खा पी सकती है।

पर गृह-प्रबन्ध मे कुशल न होने के कारण वह आवश्यक और अनावश्यक खर्च का ज्ञान न रखती थी। परिणाम यह हुआ कि महीने में दस दिन बाकी थे और सुमन ने सब रुपये खर्च कर डाले थे। उसने गृहिणी बनने की नही, इन्द्रियों के आनन्द भोग की शिक्षा पाई थी। गजाधर ने यह सुना तो सन्नाटे में आ गया। अब महीना कैसे कटेगा? उसके सिरपर एक पहाड़-सा टूट पड़ा। इसकी शंका उसे कुछ पहले ही हो रही थी। सुमन से तो कुछ न बोला, पर सारे दिन उसपर चिन्ता सवार रही, अब बीच में रुपये कहाँ से आवें?

गजाघर ने सुमन को घर की स्वामिनी बना तो दिया था, पर वह स्वभाव से कृपण था। जलपान को जलेबियाँ उसे विष के समान लगती थी। दाल में घी देखकर उनके हृदय मे शूल होने लगता। वह भोजन करता तो बटुलीकी ओर देखता कि कही अधिक तो नहीं बना है। दरवाजे पर दाल चावल फेंका देखकर उसके शरीर मे ज्वाला-सी लग जाती थी, पर सुमन की मोहनी सूरत ने उसे वशीभूत कर लिया था। मुंह से कुछ न कह सकता।

पर आज जब कई आदमियो से उधार माँगने पर उसे रुपये न मिले तो वह अधीर हो गया। घर में आकर बोला, रुपये तो तुमने सब खर्च कर दिये अब बताओ कहां से आवें?