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सेवासदन
 


जायगी। उसे मुँँह दिखाने की अपेक्षा गंगाकी गोद में मग्न हो जाना कितान सहज था।

अकस्मात् उसने देखा कि कोई आदमी उसकी तरफ चला आ रहा है। अभी कुछ-कुछ अंधेरा था, पर सुमन को इतना मालूम हो गया कि कोई साधु है। सुमन की उँगुली में एक अँगूठी थी। उसने उसे साधु को दान करने का निश्चय किया, लेकिन वह ज्यों ही समीप आया, सुमने भय, घृणा और लज्जा से अपना मुँँह छिपा लिया। यह गजाधर थे।

सुमन खड़ी थी और गजाघर उसके पैरो पर गिर पड़े और रुद्ध कण्ठ से बोले, मेरे अपराध क्षमा करो।

सुमन पीछे हट गई, उसको आँँखो के सामने अपने अपमान का दृश्य खिंंच गया। घाव हरा हो गया। उसके जी में आया कि इसे फटकारूँ, कहूँ कि तुम मेरे पिता के घातक, मेरे जीवन के नाश करने वाले हो, पर कुछ गजाधर की अनुकम्पापूर्ण उदारता, कुछ उसका साधु वेश और कुछ विराग भावने, जो प्राणघातका संकल्प कर लेने के बाद उदित हो जाता है, उसे द्रवित कर दिया। उसके नयन सजल हो गये, करुण स्वर से बोली, तुम्हारा कोई अपराध नहीं है, जो कुछ हुआ वह सब मेरे कर्मों का फल था।

गजाधर—नहीं सुमन, ऐसा मत कहो, यह सब मेरी मूर्खता और अज्ञानताका फल है। मैंने सोचा था कि उसका प्रायश्चित कर सकूंंगा, पर अपने अत्याचारका भीषण परिणाम देखकर मुझे विदित हो रहा है कि उसका प्राश्चित नहीं हो सकता। मैंने इन्ही आँँखो से तुम्हारे पूज्य पिता को गगा में लुप्त होते देखा है।

सुमन ने उत्सुक भाव से पूछा, क्या तुमने पिताजी को डूबते देखा है।

गजाधर-सुमन, डूबते देखा। मैं रातो को अकेला जा रहा था, मार्ग में वह मुझे मिल गये। मुझे अर्द्ध रात्रि के समय उन्हें गगाकी ओर जाते देखकर संदेह हुआ। उन्हें अपने स्थान पर लाया और उनके हृदय को शान्त करनेकी चेष्टा की। फिर यह समझकर कि मेरा मनोरथ