सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:सेवासदन.djvu/२४१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
२८०
सेवासदन
 


अन्य उपाय न सूझता था? उसने लजाते हुए सदनसे कहा, सदनसिंह आज बड़े भाग्य से तुम्हारे दर्शन हुए। तुमने तो इधर आना ही छोड़ दिया। कुशलसे तो हो?

सदन झेंपता हुआ बोला, हाँ, सब कुशल है।

सुमन—दुबले बहुत मालूम होते हो, बीमार थे क्या?

सदन—नहीं, बहुत अच्छी तरह हूँ। मुझे मौत कहाँ?

हम बहुधा अपनी झेंप मिटाने और दूसरोंकी सहानुभूति प्राप्त करने के लिए कृत्रिम भावों की आड़ लिया करते हैं।

सुमन—चुप रहो, कैसा अशकुन मुँहसे निकालते हो। मैं मरने की मनाती तो एक बात थी, जिसके कारण यह सब हो रहा है। इस रामलीला की कैकेयी मैं ही हूँ। आप भी डूबी ओर दूसरों को भी अपने साथ ले डूबी। खड़े कबतक रहोगे, बैठ जाओ। मुझे आज तुमसे बहुत सी बातें करनी हैं। मुझे क्षमा करना, अब तुम्हें भैया कहूँगी। अब मेरा तुमसे भाई बहनका नाता है। मैं तुम्हारी बड़ी साली हूँ, अगर कोई कड़ी बात मुँह से निकल जाय तो बुरा मत मानना। मेरा हाल तो तुम्हें मालूम ही होगा। तुम्हारे चाचा ने मेरा उद्धार किया और अब मैं विधवा आश्रम में पड़ी अपने दिनो को रोती हूँ और सदा रोऊँगी। इधर एक महीनेसे मेरी अभागिनी बहन भी यहीं आ गई है, उमानाथके घर उसका निर्वाह न हो सका। शर्माजी को परमात्मा चिरजीवी करें, वह स्वयं अमोला गए और इसे ले आए। लेकिन यहाँ लाकर उन्होंने भी इसकी सुधि न ली। मैं तुमसे पूछती हूँ, भला यह कहाँ की नीति है कि एक भाई चोरी करे और दूसरा पकड़ा जाय। अब तुमसे कोई बात छिपी नहीं है, अपने खोटे नसीब से, दिनों के फेर से, पूर्वजन्म के पापों से मुक्त अभागिनी ने धर्मका मार्ग छोड़ दिया। उसका दण्ड मुझे मिलना चाहिए था और वह मिला। लेकिन इस बेचारी ने क्या अपराध किया था कि जिसके लिए तुम लोगों ने इसे त्याग दिया? इसका उत्तर तुम्हें देना पड़ेगा! देखो, अपने बड़ों की आड़ मत लेना, यह कायर मनु्ष्य की चाल है। सच्चे हृदय से बताओ,