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पृष्ठ:सेवासदन.djvu/२४३

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सेवासदन
 


तुम उसे जिस तरह चाहे रखो, वह तुम्हारे ही नाम पर आजन्म बैठी रहे।

सदन ने देखा कि शान्ता की आँखो से जल बहकर उसके पैरों पर गिर रहा है। उसका सरल प्रेम-तृषित हृदय शोक से भर गया। अत्यन्त करुण स्वर से बोला, मेरी समझ में नहीं आता कि क्या करूँ? ईश्वर साक्षी है। कि दुःख से मेरा कलेजा फटा जाता है।

सुमन-तुम पुरुष हो, परमात्मा ने तुम्हें सब शक्ति दी है।

सदन- मुझसे जो कुछ कहिये करने को तैयार हूँ।

सुमन-वचन देते हो?

सदन—मेरे चित्त को जो दशा हो रहो है वह ईश्वर ही जानते होंगे, मुँह से क्या कहूँ।

सुमन—मरदों को बातों पर विश्वास नहीं आता।

यह कहकर मुस्कुराई। सदन ने लज्जित होकर कहा, अगर अपने वश की बात होती तो अपना हृदय निकालकर आपको दिखाता। यह कहकर उसने दबी हुई आँखो से शान्ता की ओर ताका।

सुमन-—अच्छा, तो आप इसी गंगा नदी के किनारे शान्ता का हाथ पकड़कर कहिए कि तुम मेरी स्त्री हो और मैं तुम्हारा पुरुष हैं, मैं तुम्हारा पालन करुँगा।

सदन के आत्मिक बल ने जवाब दे दिया। वह बगले झाँकने लगा, मानो अपना मुँह छिपाने के लिए कोई स्थान खोज रहा है। उसे ऐसा जान पडा कि गंगा मुझे छिपाने के लिए बढ़ी चली आती है। उसने डूबते हुए मनुष्य की भाँति आकाश की ओर देखा और लज्जा से आँखे नीची किए रुक-रुककर बोला, सुमन, मुझे इसके लिए सोचने का अवसर दो। सुमन ने नम्रता से कहा, हाँ सोचकर निश्चय कर लो, मैं तुम्हे धर्म संकट में नहीं डालना चाहती। यह कहकर वह शान्ता से बोली, देख तेरा पति तेरे सामने खड़ा है। मुझसे जो कुछ कहते बना उससे कहा, पर वह नहीं पसीजता। वह अब सदा के लिए तेरे हाथ से जाता है। अगर तेरा प्रेम सत्य है और उसमें कुछ बल है तो उसे रोक ले, उससे प्रेम वरदान ले लें।