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सेवासदन
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यह कहकर सुमन गंगा की ओर चली। शान्ता भी धीरे-धीरे उसी के पीछे चली गई। उसका प्रेम मान के नीचे दब गया। जिसके नामपर वह यावज्जीवन दुःख झेलने का निश्चय कर चुकी थी, जिसके चरणों पर वह कल्पना में अपने को अर्पण कर चुकी थी, उसी से वह इस समय तन बैठी। उसने उसकी अवस्था को न देखा, उसकी कठिनाइयों का विचार न किया, उसकी पराधीनता पर ध्यान न दिया। इस समय वह यदि सदन के सामने हाथ जोड़कर खड़ी हो जाती तो उसका अभीष्ट सिद्ध हो जाता पर उसने विनय के स्थानपर मान करना उचित उमझा।

सदन एक क्षण वहाँ खड़ा रहा और बाद को पछताता हुआ घर को चला।

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सदन को ऐसी गलानि हो रही थी, मानो उसने कोई बड़ा पाप किया हो। वह बार-बार अपने शब्दों पर विचार करता और यही निश्चय करता कि मैं बड़ा निर्दयी हूँ। प्रेमाभिलाषा ने उसे उन्मत्त कर दिया था।

वह सोचता, मुझे संसार का इतना भय क्यों है? संसार मुझे क्या दे देता है? क्या केवल झूठी बदनामी के भय से मैं उस रत्न को त्याग दूँ, जो मालूम नहीं मेरे पूर्व जन्म की कितनी ही तपस्याओं का फल है? अगर अपने धर्म का पालन करने के लिए मेरे बन्धुगण मुझे छोड़ दे तो क्या हानि है? लोकनिन्दा का भय इसलिए है कि वह हमें बुरे कामों से बचाती है। अगर वह कर्त्तव्य मार्ग में बाधक हो तो उससे डरना कायरता है। यदि हम किसी निरापराध पर झूठ अभियोग लगावे, तो संसार हमको बदनाम नहीं करता, वह इस अकर्म में हमारी सहायता करता है, हमको गवाह और वकील देता है। हम किसी का धन दबा बैठे, किसी की जायदाद हड़प ले, तो संसार हमको कोई दण्ड नहीं देता, देता भी है तो बहुत ही कम, लेकिन ऐसे कुकर्मों के लिए वह हमें बदनाम करता है, हमारे माथे पर सदा के लिए कलंक का टीका लगा देता है। नहीं, लोकनिन्दा का भय मुझसे