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सेवासदन
३०९
 


समझता हूँ। यह हो सकता है कि दोनों बहनों के अलग रहने का प्रबन्ध कर दिया जाय जिसमे उन्हें कोई कष्ट न हो। बस यही तक। इसके आगे मेरी कुछ सामर्थ्य नहीं है। भाई साहब की जो इच्छा हो वही करो।

सदन——क्या आपको मालूम नहीं, कि वह क्या उत्तर देगे?

पद्म——हाँ, यह भी मालूम है।

सदन——तो उनसे पूछना व्यर्थ है। माता-पिता की आज्ञा से में अपनी जान दे सकता हूँ, जो उन्हीं की दी हुई है, लेकिन किसी निरपराध की गर्दन पर तलवार नहीं चला सकता।

पद्म——तुम्हें इसमें क्या आपत्ति है कि दोनों बहनें एक अलग मकान में ठहरा दी जायँ।

सदन ने गर्म होकर कहा, ऐसा तो मैं तब करूँगा, जब मुझे छिपाना हो। में कोई पाप करने नहीं जा रहा हूँ, जो उसे छिपाऊँ। यह मेरे जीवन-का परम कर्त्तव्य है उसे गत रखने की आवश्यकता नहीं है। अब तक विवाह के जो संस्कार नहीं पूरे हुए है वह कल गंगा के किनारे पूरे किये जायँगे। यदि आप वहाँ आने की कृपा करेगे तो मैं अपना सौभाग्य समझूँगा, नहीं तो ईश्वरके दरबार में गवाहो के बिना भी प्रतिज्ञा हो जाती है।

यह कहता हुआ सदन उठा और घर में चला गया। सुभद्रा ने कहा, वहाँ, खूब गायब होते हो, सारी रात जी लगा रहा। कहाँ रह गए थे?

सदन ने रात का सारा वत्तान्त चाची से कहा। चाची से बातचीत करने में उसे वह झिझक न होती थी जो शर्मा जी से होती थी। सुभद्रा ने उसके साहस की बड़ी प्रशसा की। बोली, माँ बाप के डर से कोई अपनी व्याहता को थोड़े ही छोड़ देता है। दुनिया हँसेगी तो हँसा करे। उसके डर से अपने घर के प्राणी की जान ले ले? तुम्हारी अम्मा से डरती हूँ, नहीं तो उसे यही रखती।

सदन ने कहा, मुझे अम्मा दादा की परवाह नहीं है।

सुभद्रा——बहुत परवाह तो की। इतने दिनों तक बेचारी को घुला-