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पृष्ठ:सेवासदन.djvu/४५

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सेवासदन
 


होकर बोली, अच्छा तो जवान संभालो, बहुत हो चुका। घंटे भर से मुह मे जो अनाप-शनाप आता है बकते जाते हो। मैं तरह देती जाती हूँ, उसका यह फल है। मुझे कोई कुलटा समझ लिया है?

गजाधर—मै तो ऐसा ही समझाता हूँ।

सुमन-तुम मुझे मिथ्या पाप लगाते हो, ईश्वर तुम से समझेगे।

गजाधर-चली जा मेरे घर से, राँड़! कोसती है?

सुमन—हाँ, यों कहो कि तुझे रखना नही चाहता। मेरे सिर पाप क्यों लगाते हो? क्या तुम्ही मेरे अन्नदाता हो? जही मजूरी करूँगी वही पेट पाल लूँगी।

गजाधर—जाती है कि खडी गालियाँ देती है?

सुमन जैसी सगर्वा स्त्री इस अपमान को सह न सकी। घर से निकालने को उनकी भयकर इरादो को पूरा कर देती है।

सुमन बोली, अच्छा लो, जाती हूँ।

यह कहकर उसने दरवाजे की तरफ एक कदम बढ़ाया, किन्तु अभी उसने जाने का निश्चय नहीं किया था।

गजाधर एक मिनट तक कुछ सोचता रहा, फिर बोला, अपने गहने-कपड़े लेती जा, यहाँ कोई काम नही है।

इस वाक्य ने टिमटिमाते हुए आशा रूपी दीपक को बुझा दिया। सुमन को विश्वास हो गया कि अब यह घर मुझसे छूटा। रोती हुई बोली, मैं लेकर क्या करूँगी।

सुमन ने सन्दूकची उठा ली और द्वार से निकल आई, अभी तक उसकी आस नही टूटी थी। वह समझती थी कि गजाधर अब भी मनाने आवेगा। इसलिये वह दरवाजे के सामने सड़़क पर चुपचाप खड़ी रही। रोते-रोते उसका आँचल भीग गया था। एकाएक गजाधर ने दोनो किवाड़ जोर से बन्द कर लिये। यह मानो सुमन की आशा का द्वार था जो सदैव के लिये उसकी ओर से बन्द हो गया। सोचने लगी, कहाँ जाऊँ? उसे अब ग्लानि और पश्चात्ताप के बदले गजाधर पर क्रोध आ रहा था। उसने