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सेवासदन
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अपनी समझ में ऐसा कोई काम नही किया था,जिसका ऐसा कठोर दण्ड मिलना चाहिये था। उसे घर आने में देर हो गयी थी इसके लिए दो-चार घुडकियाँँ बहुत थीं। यह निर्वासन उसे घोर अन्याय प्रतीत होता था। उसने गजाधर को मनाने के लिये क्या नही किया? विनती की, खुशामद की, रोई, किन्तु उसने सुमन का अपमान ही नहीं किया, उसपर मिथ्या दोषा-रोपण भी किया। इस समय यदि गजाधर मनाने भी आता तो सुमन राजी न होती। उसने चलते-चलते कहा था, जाओ अब मुँँह मत दिखाना। यह शब्द उसके कलेजे में चुभ गये थे। मैं ऐसी गई बीती हूँ कि अब वह मेरा मुँह भी देखना नही चाहते, तो फिर क्यों उन्हें मुँँह दिखाऊँ? क्या संसार में सब स्त्रियों के पति होते है? क्या अनाथाएँ नही है? मैं भी अब अनाथा हूँ। वसन्त के समीर और ग्रीष्म की लू में कितना अन्तर है! एक सुखद और प्राणपोषक, दूसरी अग्निमय और विनाशिनी। प्रेम बसन्त-समीर है, द्वेष ग्रीष्म की लू। जिस पुष्प को बसन्त समीर महीनो में खिलाती है, उसे लू का एक झोका जलाकर राख कर देता है। सुमन के घर से थोड़ी दूर पर एक खाली बरामदा था। वहाँ जाकर उसने सन्दूकची सिरहाने रक्खी और लेट गई। तीन बज चुके थे। दो घण्टे उसने यह सोचने में काटे कि कहाँ जाऊँ। उसकी सहचरियो मे हिरिया नामकी एक दुष्ट स्त्री थी, वहाँ आश्रय मिल सकता था, किन्तु सुमन उधर नही गई। आत्मसम्मान का कुछ आश अभी बाकी था। अब वह एक प्रकार से स्वच्छन्द थी और उन दुष्कामनाओं को पूर्ण कर सकती थी जिनके लिये उसका मन बरसों से लालायित हो रहा था। अब उस सुखमय जीवन के मार्ग मे कोई बाधा न थी। लेकिन जिस प्रकार बालक किसी गाय या बकरी को दूर से देखकर प्रसन्न होता है,पर उसके निकट आते ही भय से मुँँह छिपा लेता है, उसी प्रकार सुमन अभिलाषाओ के द्वार पर पहुँचकर भी भीतर प्रवेश न कर सकी। लज्जा, खेद, घृणा, अपमान ने मिलकर उसके पैरों में बेड़ी सी डाल दी ।उसने निश्चय किया कि सुभद्रा के घर चलूँ, वही खाना पका दिया करूँगी, सेवा टहल करूँगी और पड़ी रहूँँगी। आगे ईश्वर मालिक है।