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सेवासदन
 


उसने सदूकची आचंल में छिपा ली और पड़ित पद्मसिंह के घर आ पहुँची। कई मुवक्किल हाथ-पांव धो रहे थे। कोई आसन बिछाये ध्यान करता था और सोचता था, वही मेरे गवाह न बिगड़ जायें। कोई मालाफेरत था, मगर उसके दानों से उन रुपयों का हिसाब लगा रहा था जो आज उसे व्यय करने पड़ेंगे। मेहतर खड़ा रात की पूड़ियाँ समेट रहा था। सुमन को भीतर जाते हुए संकोच हुआ लेकिन जीतन कहार को आते देखकर वह शीघ्रता से अन्दर चली गयी। सुभद्रा ने आश्चर्य मे पूछा-घर से इतने सवेरे कैसे चली?

सुमन ने कुण्डित स्वर से कहा, घर से निकाल दी गई हूं।

सुभदा-—अरे! यह किस बात पर?

सुमन-—यही कि रात मुझे यहाँ जाने में देर हो गई।

सुभद्रा-—इस जरा सी बात का इतना बतंगड़ देखो, मै उन्हें बुलवाती हुँ, विचित्र मनुष्य है।

सुमन-—नहीं नही, उन्हें न बुलाना, मै रो-धोकर हार गई। लेकिन उस निर्दयी को तनिक भी दया न आई। मेरा हाथ पकड़़कर घर से निकाल दिया। उसे घमंड है कि मै ही इसे पालता हूं। में उसका यह घमंड तोड़ दूँगी।

सुभद्रा--चलो, ऐसी बातें न करो, मैं उन्हें बुलवाती हूं।

सुमन-—मै अब उसका मुंह नही देखना चाहती।

सुभद्रा-—तो क्या ऐसा बिगाड़ हो गया है?

सुमन-—हां, अब ऐसा ही है। अब उससें मेरा कोई नाता नही।

सुभद्रा ने सोचा, अभी क्रोध में कुछ न सूझेगा, दो-एक रोज में शान्त हो जायगी। बोलो, अच्छा मुंह हाथ तो धो डालो, आंखें चढी हुई है, मालूम होता है, रातभर सोई नही हो। कुछ देर सो लो, फिर बातें होंगी।

सुमन-—आराम से सोना ही लिखा होता तो क्या ऐसे कुपात्र से पाला पड़ता। अब तो तुम्हारी शरण आई हूं। शरण दोगी तो रहेंगी, नही कहीं मुंह में कालिग लगाकर डूब मरूँगी। मुझे एक कोने मे थोडी़-सी जगह दे