खूब मिलती है, तुम एक ऊँचे, सुसज्जित भवन में निवास करती हो, नर्म कालीनों पर बैठती हो, फूलों की सेजपर सोती हो; भॉति भॉति के पदार्थ खाती हो; लेकिन सोचो तो तुमने यह सामग्रियाँ किन दामों मोल ली हैंं? अपनो मान मर्यादा बेचकर। तुम्हारा कितना आदर था, लोग तुम्हारी पदरज माथे पर चढ़ाते थे, लेकिन आज तुम्हे देखना भी पाप समझा जाता है.............
सुमन ने बात काट कर कहा, महाशय, यह आप क्या कहते है? मेरा तो यह अनुभव है कि जितना आदर मेरा अब हो रहा है उसका शतांश भी तब नही होता था।एक बार में सेठ चिम्मनलाल के ठाकुर द्वारे में झूला देखने गई थी, सारी रात बाहर खडी भीगती रही, किसी ने भीतर न जाने दिया, लेकिन कल उसी ठाकुर द्वारे में मेरा गाना हुआ तो ऐसा जान पड़ता था मानों मेरे चरणो से वह मन्दिर पवित्र हो गया।
विट्ठलदास—लेकिन तुमने यह भी सोचा है कि वह किस आचरण के लोग है।
सुमन—उनके आचरण चाहे जैसे हों, लेकिन वह काशी के हिन्दूसमाज के नेता अवश्य है। फिर उन्ही पर क्या निर्भर है? मै प्रातःकाल से सन्ध्या तक हजारों मनुष्यों को इसी रास्ते आते-जाते देखती हूँ। पढ़े-अपढ़, मूर्ख-विद्वान, धनी-गरीब सभी नजर आते है, तुरन्त सबको अपनी तरफ खुली या छिपी दृष्टि से ताकते पाती हूँ, उनमें कोई ऐसा नही मालूम होता जो मेरी कृपादृष्टि पर हर्ष से मतवाला न हो जाय। इसे आप क्या कहते है? सम्भव है,शहर में दो चार मनुष्य ऐसे हों जो मेरा तिरस्कार करते हो। उनमें से एक आप है, उन्ही में आपके मित्र पद्मसिह है, किन्तु जब संसार मेरा आदर करता है तो इने-गिने मनुष्यों के तिरस्कार की मुझे क्या परवाह है? पद्मसिंह को भी जो चिढ़ है वह मुझसे है, मेरे विरादरी से नही। मैने इन्हीं आँखों से उन्हे होली के दिन भोली से हँसते देखा था।
विट्ठलदास को कोई उत्तर न सूझता था। बुरे फँसे थे। सुमन ने फिर कहा, आप सोचते होगे कि भोगविलास की लालसा से कुमार्ग में आई हूँ,