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पृष्ठ:सेवासदन.djvu/७७

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सेवासदन
 


पर वास्तव में ऐसा नही है। में ऐसी अन्धी नहीं कि भले-बुरे की पहचान न कर सकूँ। मैं जानती हूंँ कि मैने अत्यन्त निकृष्ट कर्म किया है। लेकिन में विवश थी, इसके सिवा मेरे लिए और कोई रास्ता न था। आप अगर सुन सके तो मैं अपनी राम कहानी सुनाऊँ। इतना तो आप जानते ही है कि संसार में सबकी प्रकृति एक सी नहीं होती। कोई अपना अपमान सह सकता है, कोई नहीं सह सकता। मैं एक ऊँचे कुल की लडकी हूंँ, पिताकी नादानी से मेरा विवाह एक दरिद्र मूर्ख मनुष्य से हुआ, लेकिन दरिद्र होने पर भी मुझसे अपना अपमान न सहा जाता था। जिनका निरादर होना चाहिए उनका आदर होते देखकर मेरे हृदय में कुवासनाएँ उठने लगती थी। मगर मैं इस आग से मन ही मन जलती थी। कभी अपने भावों को किसी से प्रकट नहीं किया। सम्भव था कि कालान्तर में यह अग्नि आप ही आप शान्त हो जाती, पर पद्मसिंह के जलसे ने इस अग्नि को भड़का दिया। इसके बाद मेरी जो-दुर्गति हुई वह आप जानते ही है। पद्मसिंह के घर से निकलकर से भोली बाई की शरण में गई। मगर उस दशा में भी से इस मार्ग से भागती रही। मैने चाहा कि कपड़े सीकर अपना निर्वाह करूँ पर दुष्टों ने मुझे ऐसा तंग किया कि अन्त में मुझे इस कुएँ में कूदना पड़ा। यद्यपि इस काजल की कोठरी आकर पवित्र रहना अत्यन्त कठिन है, पर मैंने यह प्रतिज्ञा कर ली है कि अपने सत्य की रक्षा करूँगी, गाऊँगी, नाचूँगी पर अपने को भ्रष्ट न होने दूँगी।

विठ्ठल-तुम्हारा यहाँ बैठना ही तुम्हे भ्रष्ट करने के लिए काफी है।

सुमन-तो फिर और क्या कर सकती हूं। आप हो बताइये। मेरे लिए मुझे जीवन बिताने का और कौन-सा उपाय है।

बिठ्ठल—अगर तुम्हें यह आशा है कि यहाँ सुख से जीवन कटेगा तो तुम्हारी बड़ी भूल है। यदि अभी नहीं तो थोड़े दिनों में तुम्हे अवश्य मालूम हो जायगा कि यहां सुख नहीं है। सुख सन्तोष से प्राप्त होता है, बिलास से सुख कभी नही मिल सकता।

सुमन-—सुख न सही यहां पर मेरा आदर तो है। में किसी की गुलाम तो नहीं हूँ।