तम्बाखू का मज़ा ले रहे थे। कीमती विलायती शराब उनके हलक से ज्यों-ज्यों उतरती जाती थी वह चहकते जाते थे । रंडियों का मुजरा सामने चल रहा था । और थोड़े फासले पर तीन चार अंग्रेज अफसर और दो तीन देशी रईस भी इस जल्से की शोभा बढ़ा रहे थे। जिनकी खातिरदारी का काम कर्नल का खास अर्दली कल्लू खाँ निहायत खूबी से कर रहा था । उसकी एक आँख अपने मालिक पर थी, और वह उसकी हर हरकत को गहराई से देख रहा था तथा प्रत्येक बात का मतलब समझता था । और दूसरी आँख मेहमानों पर थी- जिनमें से अनेकों की वहाँ हाज़िरी किसी खास मतलब से ही थी। यही हाल रंडियों का भी था। वे खूब ठाठ से सजी-धजी बारी-बारी से मुजरा कर रही थीं। रंडियों की खाला खानम अपना भारी भरकम शरीर लिए बैठी सरौता चला रही थी, और अपनी नौचियों को कर्नल या उसके अर्दली के इशारे पर मुजरे के लिए खड़ा कर रही थी। कर्नल का ध्यान तमाम महफिल पर था। पर वह खूब धीरे-धीरे इत्मीनान से नवाब से बात कर रहा था । वह कह रहा था- "नवाब, हम आप जैसे खानदानी रईस से मिल कर बहुत खुश हैं । हमें सख्त अफ़सोस है, कि इन मराठों ने आप जैसे खानदानी रईसों को तबाह कर दिया । और बादशाह सलामत को भी अपना गुलाम बना लिया।" “हुजूर, हम सात पुश्त के रईस हैं। मेरे दादाजान, अल्लाह उन्हें जन्नत बख्शे, मुहम्मदशाह अब्दाली के सिपहसालार थे और जब अब्दाली लौटे और मराठों का खात्मा हो गया, तो उन्होंने मेरे दादाजान को यह सहारनपुर की जागीर इनायत की थी, और उन्हें तमाम रुहेले सरदारों का सदर मुकर्रिर किया था। मुद्दत तक वे शाहीदर्बार में सब रुहेले सर- दारों के वकील-मुतलक रहे । लेकिन इस मर्दूद महादजी सिंधिया ने न दिल्ली दर्बार का अदब रखा, न हम रईसों का। खुदा गारत करे उसे । उसने बादशाह को तो ऐसा बाँध कर रखा हुजूर, कि तौबा ही भली । १२२
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