पृष्ठ:सोना और खून भाग 1.djvu/१६६

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किला और उसके चारों ओर कुछ पुख्ता इमारतें थीं-जो सब यूरोपियनों की थीं और जहाँ यूरोपियन सौदागरों ने अपनी कोठियाँ तथा व्यापारिक अड्डे बनाए हुए थे । उस समय नगर के इस भाग में कोई सुरक्षा की दीवार भी न थी। सड़कें भी अपूर्ण थीं, यद्यपि इस बन्दरगाह को बसे अब पचास बरस बीत चुके थे। किले की फ़सीलें भी ऐसी न थीं जो किसी अच्छे आक्रमण का मुकाबला कर सकें। जहाँ जहाज ने लंगर डाला था-वहाँ से सैंट थामस कैथेड्रल का टावर दीख रहा था -जो अभी हाल ही में बन कर तैयार हुअा था। जहाज से अनेक अंग्रेज और डच यात्री किनारे पर उतर कर अपने-अपने माल अस्बाब की देख-भाल कर रहे थे । दुभाषिए लोग और गाइड उस समय अपने-अपने सर्टिफ़िकेट्स लिए यात्रियों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर रहे थे और टूटी-फूटी हिन्दुस्तानी अंग्रेजी में बता रहे थे, कि बिना उनकी सहायता के उन्हें इस अपरिचित भूमि में बहुत तकलीफ़ होगी। वे लुट जाएँगे। परन्तु यदि वे उनकी सहायता लेंगे तो लाभ में भी रहेंगे और सुरक्षित भी। इन आगत यात्रियों में एक तरुण अंग्रेज आतुरता से ऊंची गर्दन उठाए-किसी को उस भीड़-भाड़ में खोज रहा था। जब उसे कोई परि- चित चेहरा न दिखाई दिया तो उस ने हताश होकर एक गाइड को संकेत से अपने पास बुलाया और कहा-"क्या तुम मुझे कैप्टेन के बंगले पर पहुंचा सकते हो ?" "यस साब, मैं मूर साब को बखूबी जानता हूँ। आप मेरे साथ आइए, अस्व ब की चिन्ता मत कीजिए, मेरा आदमी पहुँचा देगा। मैं इज्जतदार गाइड हूँ सर। यह मेरे पास मेकलिन साब का साटिफ़िकेट है- जो बम्बई के मशहूर सौदागर हैं।" तरुण ने एक उड़ती नज़र कागज पर डाली और उसके साथ हो लिया। अभी वे दोनों थोड़ी ही दूर गए थे-कि सामने से एक अफ़सर १७०