होशियारी से अपने चारों ओर देखा कि अब यह हमारा मारा हुआ शिकार हिन्दुस्तान हमारे खाने के लिए सुरक्षित है भी। कहीं से कोई खटका तो नहीं है, तो उन्हें एक दरार दिखाई दी। जिस समय अंग्रेज़ पूना में उलझ रहे थे, बर्मा के तरुण राजा ने उकस कर मनीपुर और आसाम को जीत कर अपने राज्य में मिला लिया था। जिस से बर्मा राज्य की सीमाएँ अब बंगाल को छू रही थीं। और बर्मा का राजा जो अंग्रेज़ों के शक्ति सन्तुलन से बेखबर था-बंगाल पर ललचाई नज़र डाल रहा था। बंगाल अधिकृत करने के बाद से ही अंग्रेज़ आसाम और मनीपुर पर नज़र रख रहे थे । और अब बर्मा के राजा ने मानो उनके मुंह का ग्रास छीन लिया था। परन्तु अभी वे दक्खिन में उलझ रहे थे। फिर भी उन्होंने कुछ बदमाश पेशेवर डाकुओं को इस काम पर नियत कर दिया था कि वे बर्मा की सीमाओं में घुस कर लूट-मार करके अंग्रेजी राज्य में आश्रय लें। इस पर बर्मा के राजा ने अंग्रेजों को विरोध- पत्र लिखा-अपराधियों को माँगा, और जब अंग्रेजों ने कोई सन्तोषजनक जवाब नहीं दिया तो बर्मा के राजा ने कहा-चूंकि अंग्रेज़ सरकार बंगाल की सीमा से बर्मा पर आक्रमण करने वाले अपराधियों को नहीं रोक सकती, तो वह चटगाँव-ढाका, मुर्शिदाबाद और क़ासिम बाजार बर्मा सरकार को दे दे। बस, यही लड़ाई का बहाना हो गया। दक्षिण से अंग्रेज निबट चुके थे, और अव उन्होंने बर्मा से लोहा लेने की ठान ली। बहुत संघर्ष हुआ। अन्त में सन् १८२६ में वर्मा सरकार ने घुटने टेक दिए—आसाम और मनीपुर अंग्रेजों को दे दिए गए तथा अराकान पर भी अंग्रेजों का अधि- कार हो गया। इस प्रकार अंग्रेजों ने बर्मा के राजा को बर्मा की सीमा में परिमित करके साँस ली । परन्तु इस युद्ध में अंग्रेजों को अपरिमित धन खर्च करना पड़ा। इसी समय अंग्रेजों ने भरतपुर का क़िला दखल करके अपना आखिरी काँटा भी निकाल डाला। २०६
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