पृष्ठ:सोना और खून भाग 1.djvu/२५१

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हवा चारों ओर मस्ती बखेर रही थी। बादशाह नवाब बहुत खुश थे । इसी समय बादशाह का खास खोजा यूसुफ़ आ हाजिर हुअा। उसने दस्तबस्ता अर्ज की कि खुदावन्द रेजीडेण्ट साहब बहादुर मुलाक़ात के लिए हाजिर आए हैं। उनके साथ उनकी औरत भी हैं। "औरत ?" "जी हाँ, उन की जोरू ।" "तो उनकी जोरू का यहाँ मेरे पास आने का क्या काम है ?" "कह नहीं सकता, शायद उनका इरादा हुजूर के हाथ उस औरत को बेचने का हो।" "क्या वह कमसिन और खूबसूरत है ? "बुड्ढी-ठड्ढी है । हाँ, गोरी-चिट्टी खूब है।" "तो मैं उसे क्यों खरीदने लगा ?" "मुल्के जमानिया, इसकी उम्र का मही पता लगना मुश्किल है। विलायती मेम लोग चालीस की होने पर भी पच्चीस की लगती हैं । दाँत झड़ जाने पर बनावटी दाँत लगा लेती हैं। गाल पिचक जाने पर कपड़े की पोटली मुँह में लूंस लेती हैं।" इसी समय अंग्रेज नाई ने कमरे में प्रवेश किया । उसे देखते ही बादशाह ने कहा- "तुम कुछ कह सकते हो खाँ, कि रेजीडेण्ट साहब अपनी औरत को मेरे पास किस मक़सद से लेकर आए हैं । क्या उनका इरादा उसे वेचने का है ?" "शायद नहीं, योर मेजस्टी, मेम साहब को महज आप से मुलाकात कराने के लिए एजेन्ट साहब बहादुर ले आए हैं। वे अभी इंगलैण्ड से आई "मगर किस लिए ?" "योर मेजस्टी, ऐसा तो हमारे इंगलिस्तान के बादशाह भी करते हैं।" "लोग अपनी औरतों को उनसे मिलाने लाते हैं ?" “जी हाँ, योर मेजस्टी, यह तो एक रिवाज़ है।"