पृष्ठ:सोना और खून भाग 1.djvu/२६

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1 खड़े के खड़े रह गए । मियाँ ने उनके मनोभावों को समझ कर कहा- "अरे म्या, भूखा ग़रीब है। नियत बदल गई । हमें खुदा और देगा। हज़रत ने कहा है-मेरे बन्दे के लाखों रास्ते हैं।" दोनों खादिम चुपचाप सलाम कर और सिर झुका कर चल दिए । बावर्चीखाना मियाँ का बावर्चीखाना क्या था, लंगर था । जहाँ तीसरे पहर तक अग़लम-बग़लम जिसका जी चाहे खाना पा सकता था। सौ-पचास आदमी रोज़ ही मियाँ के बावर्चीखाने से खाना पाते थे। नौकर-चाकर, सिपाही- प्यादे, भिश्ती-महतर, कमेरे-टहलुए तो खाना पाते ही थे, फ़ालतू मटर- गश्ती लोग भी बहुत से पा जुटते थे। मियाँ की ओर से तो सभी को खाना लेने की छूट थी। फिर भी छुटभैये लोग, नौकर-चाकर, खानसामा, बावर्ची अपनी टाँग अड़ाते ही थे। मियाँ मसौती पक्के अहदी । अफ़ीम घोलना और पीनक में झूमना, मगर खाना लेने दोनों वक्त बावर्चीखाने पर हाज़िर। बावर्ची का नाम था हुसैनी । मोटा-ठिगना, एकदम सुर्मई रंग, मंहदी से रंगी हुई डाढ़ी । मोटे-मोटे लटकते हुए अोठ। नंगी कमर में गहरा उन्नाबी तहमद । मसौती ने बावर्चीखाने में पहुँच कर कहा—“मियाँ, खाना दो?" हुसैनी ने ज़रा करारी आवाज़ में कहा--"क्या काम किया है तुम ने आज, जो सुबह-सुबह सब से पहले चले पाए खाना लेने ?" मसौती मियाँ ने बड़े इतमीनान से कहा-"अमा, हम ने मियाँ को लतीफ़े सुनाए हैं।" हुसैनी ने बड़बड़ाते हुए चार चपातियाँ और सालन उसकी हथेलियों पर रख दिया। इसी समय जमाल भिश्ती ने प्रा कर कहा-"म्या, खाना दो।"