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पृष्ठ:सोना और खून भाग 1.djvu/२७

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"हाँ हाँ, हम ने मियाँ की मुर्गियों को पानी पिलाया है।" कुर्दू मियाँ आँखें मिचमिचाते आए, और हुसैनी को अस्सलाम वालेकुम् कहा । मोटे हुसैनी ने गर्दन हिला कर कहा -"आ गए खालू जान ! कहो, आज क्या काम किया है ?" "छोटे मियाँ की जूतियाँ सीधी की हैं ; लामो झटपट दो खाना । खुदा की कसम, इस रियासत में सब हराम की खाते हैं, बस हम तुम कसाला करते हैं। जीते रहो भाई, जरा सालन ज्यादा देना।" ये हुज्जतें चलती रहतीं, मगर खाना सब को मिलता। ऐसा नहीं कि कभी-कदाच, एकाध दिन। नित्य बारहों मास-तीसों दिन । बाप-बेटे रात को जब मियाँ पलंग पर दराज़ हुए, तो उनका खास खिदमत- गार पीरू पलंग के पाँयते बैठ कर उनके पैर दबाने लगा। हमीद ने पेचवान जंचा कर रख दिया। मियाँ ने हुक्के में एक-दो कश लिए और हमीद को हुक्म दिया-कि छोटे मियाँ जग रहे हों तो उन्हें ज़रा भेज दो। बड़े मियाँ का सन्देश पा कर छोटे मियाँ ने आ कर पिता को प्रादाब किया। बड़े मियां ने हुक्के की नली मुँह से हटा कर कहा-"अहमद, कल अल-सुबह ही मुक्तसर चलना है । तुम भी चले चलना जरी ।" "मेरा वहाँ क्या काम है ?" "काम नहीं, चौधरी बहुत याद करते हैं तुम्हें । जब जब जाता हूँ, तभी पूछते हैं। भई, एक ही नेक खसलत रईस हैं।" "लेकिन अब्बा हुजूर मुझे तो वहाँ जाते शर्म आती है।" "शर्म किसलिए बेटे ?" "हम लोग उनके कर्जदार हैं, और इस बार भी आप इसी मकसद से जा रहे हैं।" 1 ३०