पृष्ठ:सोना और खून भाग 1.djvu/४३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

"अरे, मैं तो भूल ही गया था। अब जाने दो भाई जान । हक़ीक़त में मैं अपनी यह अंगूठी तुम्हें अपनी दोस्ती की यादगार के तौर पर देना चाहता था। शिकार की शर्त का महज़ बहाना था।" "यह न होगा। शर्त पूरी करना फर्ज है । यह लीजिए।" उन्होंने जेब के भीतर हाथ डाल वह रसीद निकाली और सुरेन्द्र के हाथ पर रख दी। "यह क्या है ?" "वही चीज़, जो मैंने तुम्हें देने का क़सद किया था।" सुरेन्द्र पाल ने कहा-“यह तो महज़ एक काग़ज़ का टुकड़ा है।" "तिनका ही सही । तुम्हीं ने कहा था कि नज़राने की कीमत नहीं आंकी जा सकती।" सुरेन्द्रपाल को इस रसीद की बाबत कुछ भी पता न था। यह वास्तव में चालीस हजार कर्जे की भरपाई की वही रसीद थी, जो चौधरी ने छोटे मियाँ को दे दी थी। सुरेन्द्रपाल ने न उसे देखा, न पढ़ा। न उसने इस बात पर विचार किया कि यह क्या है। उसने सोचा कि इस चिट्ठी में प्यार मुहब्बत की दो बातें होंगी। उन्होंने हंस कर वह कागज जेब में रख लिया। फिर कहा-“यह अंगूठी हमारी दोस्ती और इस मुला- कात के सिलसिले में तुम्हें रखनी होगी।" "अंगूठी नहीं । देते ही हो तो वह खाल दे देना । वह मेरे पास तुम्हारी निशानी रहेगी।" "खाल तैयार करा कर भिजवा दूंगा। लेकिन अंगूठी भी ले लो।" "बस इसरार न करो दोस्त । खाल ही लूंगा।" और वह सुरेन्द्रपाल से बग़लगीर होकर मिले और चले गए। उस रसीद की बात सुरेन्द्रपाल एक बारगी ही भूल गए। कई दिन बाद उन्हें ध्यान आया। उन्होंने उसे पढ़ा तो कुछ मतलब समझा, कुछ नहीं समझा। वे बड़े भाई के पास गए और सब माजरा कह कर वह रसीद उनके हाथ पर रख दी। ४६