पृष्ठ:सोना और खून भाग 1.djvu/४४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

रामपालसिंह को रसीद की बात मालूम हो चुकी थी। यह बात उन्हें अच्छी नहीं लगी थी। पर पिता के सामने बोलने की उनकी जुर्रत न हुई थी। अब अकस्मात् अनायास ही वह रसीद हाथ में आई देख वह हैरान हो गए। उन्हें ऐसा लगा-जैसे चालीस हजार रुपया पड़ा पा गया हो । उन्होंने रसीद चुपके से अपनी जेब में रख ली। और कहा- "सुरेन्द्र, दद्दा से इस बात की चर्चा न करना । किसी से भी न कहना ।" सुरेन्द्र ने बड़े भाई की बात गाँठ बाँध ली। और शीघ्र ही वह तरुण उस महत्वपूर्ण काग़ज़ की बात एक बारगी ही भूल गया।

७:

मेहतर की बेटी का ब्याह कल्यान मेहतर आस-पास के गाँवों के भंगियों का चौधरी और सर- पंच था। उसकी बड़ी इज्जत थी। इसलिए उसकी लड़की के ब्याह की धूम भी साधारण न थी। चालीस गाँव के भंगियों को न्योता गया था। बारात आने वाली थी लखनऊ से । बेटे का बाप भी नवाब साहब का मेहतर था। उसका भी बड़ा रुपाब दबदबा था। बारात में वह लखनऊ के तायफे, बनारस के भांड़, जौनपुर की आतिशबाजी और मिर्जापुर के कव्वाल लाया था। बनारस की मशहूर शहनाई भी बारात में थी। बारात में चार सौ भंगी आए थे। सब एक से एक वज़ादार, बड़े-बड़े कड़े हाथों में पहने, भारी-भारी कण्ठे गले में, और बाले कानों में पहने, बगुले पर अंगरखे और मिर्जई डांटे आए थे। बारात बहलियों, घोड़ों और मझोलियों पर आई थी। गाँव के बाहर बारात को जनवासा दिया गया था। जनवासा आम की संघन अमराइयों में था। अम्बरी तमाखू और उपलों का ढेर जमा था। दर्जनों हुक्के और नहचे गुडगुड़ा रहे थे। बड़े-बड़े चौधरी हुक्का गुड़गुड़ाते हुए जोर-ज़ोर से ब्रादरी के कजिए चुका रहे थे। शहनाई बज रही थी। रोशन चौकी की बहार थी। एक ओर लखनऊ के तायफे अपनी ठुमरियों की ठमक से गाँव वालों के