पृष्ठ:सोना और खून भाग 1.djvu/५३

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वहाँ बड़ी धूमधाम से हर साल होता है । लाखों नरनारी कार्तिक पूर्णिमा पर गंगास्नान करते हैं। उस समय यहाँ आस-पास के देहातों का एक प्रभावशाली साँस्कृतिक प्रदर्शन होता है । कहते हैं, इस तीर्थ का प्राचीन नाम शिववल्लभपुर था । इस क्षेत्र में एक प्राचीन शिवलिंग भी है, उसका नाम मुक्तेश्वर है । प्राचीनकाल में अनेक ऋषि-मुनियों ने इस स्थान पर तपश्चर्या की थी, अनेक राजाओं ने यज्ञ-सत्र किए थे । प्रसिद्ध है कि महानृपति नृग यहाँ ही शापवश गिरगिट की योनि में अंधकूप में रहे थे । आज भी वह कूप नृग का कुआँ यहाँ मौजूद है । ऐतिहासिक दृष्टि से भी इस स्थान का बहुत महत्त्व है । प्रबल पराक्रमी हूणों को भारत की सीमा के उस पार खदेड़ कर विक्रमादित्य यशोधर्मन् ने यहीं छावनी डाली थी। बारहवीं शताब्दी में महमूद गज़नवी ने दिल्ली और मेरठ के साथ ही इस तीर्थ को ध्वस्त कर दिया था । नृग कूप, जिसे आजकल नृग का कुआँ कहते हैं, के निकट ही मुक्तेश्वर शंकर का देवालय है। जिसके आस-पास गुसाईयों के उन दिनों बावन मठ थे। जो बहुत प्रसिद्ध थे । ये गुसाईं हाथी नशीन थे। और जब इनकी सवारी निकलती थी, इनके आगे धौंसा बजता था। बहुत से राजाओं, जमींदारों, नवाबों और बादशाहों ने उन्हें बहुत से इलाके, गाँव-ज़मीन माफ़ी में दे रखे थे। इन गुसाईयों में बहुत से नागा सम्प्रदाय वाले थे। इनके अखाड़ों में हजारों मुस्टण्ड, अवधूत जटाधारी पड़े धूनी तपा करते और माल- मलीदे खाया करते थे। महमूद गज़नवी ने इन सब गुसाइयों को तलवार के घाट उतार दिया, एक को भी बच कर भाग निकलने का अवकाश न दिया, तथा उनके स्थान में गंजबख्श का मजार और एक मक़बरा बना दिया। मठों में संचित सदियों की सम्पदा लूट ली और मठों को जला कर खाक कर दिया। कस्बा भी तब बहुत सम्पन्न था। उसे लूट-पाट कर नष्ट कर दिया । तब से इस कस्बे में वीरानी छा गई। और अब तो वह बहुत ही खस्ताहाल है। जिस समय की कथा हम इस उपन्यास में लिख रहे हैं तब भी इसकी दशा शोचनीय ही थी। -