पृष्ठ:सोना और खून भाग 1.djvu/६४

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1 में गर्मी अभी से भर गई थी। रामपाल का घोड़ा तो बड़ी रास का था। पर दूसरा आदमी टांघन पर सवार था। दोनों जानवरों की टापों की आवाज़ हवा में गूंज उठती थी। और बीच-बीच में उनकी तलवारें भी म्यान से खनखना उठती थीं। बसेसर की हवेली का पता लगाने में उन्हें कोई दिक्कत नहीं पड़ी । रामपाल के साथ वाला आदमी पहले ही वह घर देख गया था । हवेली पक्की और दुमंज़िल थी। वे शीघ्र ही उसकी आली- शान हवेली के सामने पहुंच गए। परन्तु वहाँ न तो कोई मनुष्य ही था, न दरवाजा ही खुला था । और साफ दीख रहा था कि महीनों से किसी ने उसे छुपा ही नहीं है। मकान में कोई आदमी रहता होगा, इसका गुमान भी नहीं होता था। दरवाजा बहुत विशाल था, और उस पर मज़बूत फाटक चढ़ा था । कहीं कोई सूराख या रोशनदान तक दीवार में न था। फाटक पर मोटा लोहा जड़ा था। बहुत चीखने-चिल्लाने और दरवाजा पीटने से फाटक के ऊपर वाली एक खिड़की खुली। और उसमें से एक सिर निकला । और उसने कर्कश आवाज़ में कहा---'जायो, भागो, नहीं तो अभी लठैत आ कर लाठियों से तुम्हारा सिर फोड़ देंगे।" परन्तु रामपाल ने निकट आकर कहा--"मैं पंडरावल के चौधरी प्राणनाथ का आदमी हूँ और साहू से मिलने को मुझे चौधरी ने भेजा है । मेरे पास गुप्त संदेश है, पर वह मैं केवल साहू से ही कह सकता हूँ।" रामपाल की बात सुनकर वह सिर ग़ायब हो गया। और खिड़की बन्द हो गई । घड़ी भर बाद फिर सिर निकला । उसने पूछा- "तुम अकेले ही हो।" "नहीं, मेरे साथ एक और आदमी भी है।" "तो इस आदमी को यहीं रखो, और तुम पिछवाड़े की गली में आयो। रामपालसिंह अपना घोड़ा साथी को सौंप, तंग और अंधेरी गली में घुसा। गली सूनी और तंग थी। पिछवाड़े की खिड़की पर वही आदमी खड़ा था। उसके हाथ में नंगी तलवार थी। उसने तलवार घुमाकर कहा- "दग़ा की तो सिर भुट्ट-सा उड़ा दूंगा। चुपचाप भीतर चले आरो।" ६७