" "अन्नदाता, यह बात नहीं है, यों ही हम लोग युवराज की चर्चा कर रहे थे।" गुर्जरेश्वर ने गरज कर कहा, “हरामखोर, हमें धोखा देते हो, अभी तुम नहीं कह रहे थे कि हमारी आज्ञा...' गुर्जरेश्वर अफीम की झोंक में पूरी बात कहना भूल गए और पूरी आँख फैलाकर खवास की ओर क्रोध-भरी दृष्टि से ताकने लगे। खवास ने हाथ जोड़कर कहा- "महाराज ने युवराज को याद फरमाया था।" "तो फिर?" “युवराज राजकुमार को लेकर सिद्धेश्वर चले गए हैं।" "हमारी आज्ञा का उल्लंघन करके?" “अन्नदाता, न कहने योग्य बात कैसे कहूँ।" “कह रे हरामखोर।” महाराज ने क्रोध से उबलकर कहा। “अन्नदाता, युवराज श्री महाराज को गद्दी से उतार कर स्वयं राजा होने की खटपट कर रहे हैं। वे वहाँ सैन्य-संग्रह कर रहे हैं।" खवास ने धीमे स्वर से कहा। यह सुनते ही राजा क्रोध से जल उठे। उन्होंने तुरन्त हुक्म दिया, “तो उन दोनों राजविद्रोहियों को बाँधकर यहाँ ले आ।" खवास चुपचाप खड़ा रहा। खवास कैसे युवराज को बाँधकर ला सकता है, वह यही सोचने लगा। राजा ने कहा, “जा रे हरामखोर, खड़ा क्यों हैं?" “क्या अन्नदाता, मैं सेनापति को बुलाऊँ?" खवास ने जी-हुजूरियों से आँखें मिलाईं और वहाँ से चल दिया। महाराज फिर पिनक में झूमने लगे। इसी समय द्वार पर बहुत-से लोगों का शोरगुल सुनाई दिया। शोरगुल सुनकर महाराज की पिनक फिर टूट गई। बहुत से ब्राह्मणाों ने भीतर घुसकर पुकार की, “दुहाई महाराज की, दुहाई गुर्जरेश्वर की, हम लूटे गए हैं, हमारा सर्वस्व हरण कर लिया गया है।" राजा ने बिना सोचे-समझे चीखकर कहा, “पकड़ो इन राजविद्रोहियों को, और सूली पर चढ़ा दो।" एक ब्राह्मण ने आगे बढ़कर और हाथ में जनेऊ लेकर कहा, “महाराजाधिराज परम माहेश्वर गुर्जरेश्वर की जय हो, हम राज-विद्रोही नहीं हैं, महाराज की राजभक्त प्रजा हैं। हम पुकार करने आए हैं, हम सोमेश्वर की यात्रा को जा रहे थे कि राह में डाकुओं ने हमें "अभी बुला।” लूट लिया।" राजा ने आधी आँख उघाड़ कर तथा एक खवास की ओर देखकर कहा, "किसने इन्हें आने दिया? बोल!" “अन्नदाता, ये सब जबर्दस्ती भीतर घुस आए, राजाज्ञा नहीं मानी।" ब्राह्मणों ने कहा, “दुहाई, हम लूटे गए हैं।" "इन सबको बाँधकर बन्दीगृह में डाल दो।" "महाराज, हमारी फरियाद है।" “तुम सब राजविद्रोही हो।"
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