बैठा दिया। अब आमेर ही मीनाओं का प्रमुख नगर था। सौढ़देव ने मीनाओं को आमेर से निकाल बाहर किया और अपने को आमेर का राजा घोषित कर दिया। इसी समय सौढ़देव की मृत्यु हो गई। उनके बाद उनका पुत्र दुर्लभदेव आमेर की गद्दी पर बैठा। परन्तु दुर्लभदेव निपट बालक था, इसे सौढ़देव के भाई ने बलपूर्वक गद्दी से उतार दिया और स्वयं आमेर का राजा बन बैठा। सौढ़देव की रानी प्रताड़ित हो बालक राजा को टोकरे में रख, भिख़ारिणी के वेश में खोरू गाँव में आ वहाँ के मीना राजा के घर रसोई बनाने पर नौकर हो गई। कालान्तर में मीना राजा ने उसे पहचानकर और उसके शील, चातुर्य और कार्यपटुता से प्रसन्न हो उसे अपनी धर्म-बहिन बना लिया और दुर्लभदेव को भांजा मान लिया। अब दुर्लभदेव को राजोचित शिक्षा दी जाने लगी। आयु पाकर दुर्लभदेव बुद्धिमान और वीर युवक के रूप में प्रकट हुआ। दिल्ली उन दिनों तोमरों की थी। आसपास के सब राजे तोमरों के अधीन थे। खोरू का मीना राजा भी उनको कर देता था। अब खोरू के मीना राजा को अपना एक प्रतिनिधि दिल्ली में रखने की आवश्यकता हुई। राजा ने अपने इस तरुण भांजे दुर्लभदेव को वहाँ अपना प्रतिनिधि बनाकर भेज दिया। दुर्लभदेव ने दिल्ली में अपनी मिलनसारी, कार्यपटुता और बुद्धिमत्ता से तोमर राजा के मन में घर कर लिया। उन्होंने उस उन्नीस वर्ष के बालक की विलक्षण बुद्धिमत्ता, साहस और वीरता को देखा, तो उसे स्नेह की दृष्टि से देखने लगे। दिल्ली में दुर्लभदेव पाँच वर्ष रहा। इस बीच उसने दो बार युद्ध में वीरत्व का प्रदर्शन किया और शत्रु को विजय कर तोमर राजा के चरणों में ला डाला। इससे वह और भी उसकी नज़र में चढ़ गया। मीनाओं के विरुद्ध लूट-खसोट, अत्याचार तथा अव्यवस्था की शिकायतें दिल्ली में निरन्तर आती रहती थीं। दिल्ली-दरबार में मीना राजा के शत्रु भी थे। वे इस साहसी तरुण को मीना राजा के विरुद्ध समय-समय पर उकसाते रहते थे। इसी समय दिल्ली में यह खबर पहुँची कि गज़नी का अमीर सोमनाथ पट्टन को ध्वंस करने सपादलक्ष की ओर बढ़ा आ रहा है। और चौहान राजाधिराज धर्मगजदेव उससे लोहा लेने की तैयारियाँ कर रहे हैं। उसका युवा रक्त जोश खा गया, और उसने इस धर्म-युद्ध में भाग लेने का संकल्प कर लिया। दिल्ली में इसके अधीन पाँच सौ सुभट रहते थे, उतने ही सुभट संग लेकर वह दिल्ली से उस धर्मयुद्ध में योग देने चल पड़ा। दीपावली का पर्व था। मीना लोगों का यह जातीय त्यौहार था। वे निश्चिन्त होकर यह त्यौहार मना रहे थे, मद्य ढाली जा रही थी और नृत्योत्सव हो रहे थे। दुर्लभराय ने वहाँ पहुँच कर वीरोचित शब्दों में मामा की भर्त्सना की, और आगे बढ़कर गज़नी के बर्बरों को रोकने में शौर्य प्रकट करने का अनुरोध किया। परन्तु मीना राजा इस समय मद्य के नशे में मत्त था। उसने दुर्लभराय को हाथ से धकेल दिया। दुर्लभराय ने इसी क्षण तलवार निकालकर उसका सिर काट लिया। उसके सुभट, तलवारें सूंत-सूतकर मीनों पर पिल पड़े। सब मीना गाजर-मूली की भाँति काट डाले गए। इस प्रकार अकल्पित घटना घट जाने से भयभीत हो शेष मीनाओं ने दुर्लभराय की अधीनता स्वीकार कर ली। और दुर्लभराय ने उसी क्षण चढ़ी रकाब आमेर को दखलकर, अपने को आमेर का राजा घोषित कर दिया, तथा राज्य की उत्तम व्यवस्था की। पाँच वर्ष दिल्ली में रहकर उसे जो दरबारी अनुभव हुए थे उनसे उसे बहुत लाभ हुआ। उसने देखते ही देखते राज्य का सारा प्रबन्ध नये
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