पुष्कर का युद्ध चौहान और अमीर के लश्कर ज्योंही एक-दूसरे की दृष्टि-मर्यादा में पहुँचे, त्योंही दोनों ओर से बाणों की वर्षा प्रारम्भ हो गई। अभी ठीक-ठीक सूर्योदय नहीं हुआ था। बाण- वर्षा प्रारम्भ होते ही दोनों सेनाओं का आगे बढ़ना रुक गया। महाराज धर्मगजदेव ने यत्न और चातुरी से सब सम्भव टीलों और ऊँचे स्थानों पर अपनी सेना को दूर-दूर तक फैला दिया था। अमीर भी योजना से असावधान न था। उसने सैनिकों को वृक्षों, टीलों और आड़ की जगहों में टुकड़ियों को बिखेरकर, आड़ लेकर तीर मारने का आदेश दिया। देखते-ही-देखते दोनों ओर के सिपाही घायल हो-होकर चीत्कार करने लगे। राजपूत आगे बढ़कर हाथोंहाथ तलवार का युद्ध करने के इच्छुक थे। परन्तु अमीर के कौशल से ऐसा वे न कर सके। वह समूचा दिन इसी प्रकार व्यतीत हुआ। संध्याकाल होने पर अमीर ने युद्ध बन्द करने का संकेत किया। और दोनों ओर की सैन्य अपने-अपने शिविर को फिरी । महाराज धर्मगजदेव ने पीठ नहीं खोली, सेना कानिरीक्षण किया। घायल योद्धाओं को अजमेर भिजवा दिया गया तथा सैन्य का फिर से वर्गीकरण कर, दूसरे दिन के युद्ध की योजनाएँ बनाई। दूरस्थ सैन्य को सन्देश देकर सांढ़नियाँ रवाना की गईं। दूसरे दिन सूर्योदय से प्रथम ही राजपूतों को सावधान होने का अवसर न दे, अमीर ने अपने दुर्धर्ष घुड़सवारों को ले अकस्मात् धावा बोल दिया। इस कार्य से प्रथम तो राजपूत सैन्य में घबराहट और अव्यवस्था फैली। पर तुरन्त ही राजपूत तलवारें ले-लेकर टूट पड़े। देखते-ही-देखते वे अपने छोटे-छोटे दल बनाकर अमीर की सेना में धंस पड़े। हाथों-हाथ मार-काट होने लगी। रुण्ड-मुण्ड कट-कटकर पृथ्वी पर पड़ने लगे। मेरों की सेना, जो बी के युद्ध में अप्रतिम थी, अपनी नोंकीली बर्छियाँ ले-लेकर यवनों का संहार करने लगी। उनकी बर्छियाँ शत्रुओं की अंतड़ियाँ बाहर खींच लाए बिना शरीर से बाहर निकलती ही न थीं। उनकी खमदार तलवारों के करारे घाव खा-खाकर शत्रु हाहाकार कर उठे। अमीर अपनी सेना की यह दुर्दशा देख क्रोध से उन्मत्त हो गया। उसने मेरों के उस बर्थी-युद्ध की कल्पना भी न की थी। यह मेर, व्यवस्था और युद्ध-नियम की परवाह न कर काल-दूत की भाँति अमीर की सेना का उछल-उछल कर संहार कर रहे थे। घोड़ों को भी वे सैनिकों के समान ही हलका करने लगे। अमीर ने क्रोध से पागल हो इन जंगली मेरों का इसी दिन आमूल नाश करने की ठान ली। उसने बलूची घुड़सवारों को ललकारा। ये खूखार बलूची चारों ओर से मेरों की टुकड़ियों को घेर कर बड़े-बड़े भालों से उन्हें छेदने और अपने सधे हुए घोड़ों से उन्हें रूंधने लगे। मेरों की सैन्य में त्रास प्रकट हुआ, उनके पास घोड़े न थे, वे पैदल थे। महाराज धर्मगजदेव ने यह देख प्रबल पराक्रमी चौहान घुड़सवारों को शत्रु पर पेल दिया। अब बराबरी का युद्ध था। चौहान खून जगत्प्रसिद्ध बलूची पठानों से जूझ रहा था। राजपूतों को मनचाहा अवसर मिल रहा था। यह तलवार का हाथों-हाथ युद्ध दोपहर होते- होते ऐसा घातक रूप धारण कर बैठा कि दोनों ओर के सरदारों ने समझा कि कदाचित् आज का युद्ध ही निर्णायक युद्ध हो रहा है। मरे हुए सवारों और घोड़ों से योद्धाओं के मार्ग
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