परम परमेश्वर परम-परमेश्वर परम माहेश्वर गुर्जरेश्वर प्रबल प्रताप मार्तण्ड महाराजाधिराज चामुण्डराय बेचैनी और घबराहट में उन्मत्त की भाँति बड़बड़ा रहे थे। राजा के सब खुशामदी, जी-हुजूरिए, खवास, गोले, दास-दासी राजा को छोड़कर जिसके हाथ जो लगा, लेकर भाग गए थे। गुर्जरेश्वर अपने महलों में अकेले पड़ गए थे। जब से उन्हें मार डालने के षड्यन्त्र का भण्डाफोड़ हुआ था, वह प्रत्येक आदमी को सन्देह और भय की नजर से देखते, अपने ही पैर की आहट से चौंक उठते, हर समय हाथ में नंगी तलवार लिए रहते और नौकर-चाकर, गुलाम-गोले सभी से भयभीत और सशंकित रहते थे। अपनी परछाईं से भी डर जाते थे। भोजन और जल, सभी में उन्हें विष का भय रहता था। भोजन को वे दूर फेंक देते, चीखते-चिल्लाते, और बहुधा भूखे-प्यासे पड़े क्रोध और जुनून में बड़बड़ाया करते थे। आज उनकी नित्यक्रिया में भी बाधा आ उपस्थित हुई। बारम्बर पुकारने पर भी कोई गोला-गोली, खवास-चाकर उपस्थित नहीं हुआ। वे ज़ोर-ज़ोर से गालियां बकने लगे, उनके मुँह से फेन निकलने लगा। बहुत देर बाद एक दासी हाथ बाँधे आकर खड़ी हुई। राजा उसे देखते ही चौंक पड़े। उन्होंने तलवार का हाथ ऊँचा करके कहा, “तू क्यों आई, बोल?" “मैं अन्नदाता की सेवा में हाजिर हूँ।" "कैसी सेवा?" "जैसी हुजूर की मर्जी।” “और सब चाकर-गुलाम कहाँ गए?" “सब भाग गए महाराज।" "क्यों भाग गए?" “सारा पाटन ही भाग रहा है, अन्नदाता। नगर में भगदड़ मची है।" “महाराज यह सुनकर एकदम गद्दी पर गिर गए। उन्होंने कहा, “पाटन भाग रहा है और मुझे खबर ही नहीं।” दासी ने जवाब नहीं दिया। नीचा सिर किए खड़ी रही। राजा ने कहा, “बोलती क्यों नहीं, बोल,” फिर राजा ने गुस्से में भरकर कहा, “मैं समझ गया। तुम सब अपने राजा को मार डालना चाहते हो।" "अन्नदाता, मैं तो बचपन से ही हुजूर की खिदमत में हूँ, महाराज ने तो सदा ही मुझपर विश्वास किया है।" “पर अब...” महाराज ने दासी की ओर देखा। दासी ने निकट आकर महाराज की मसनद ठीक की। फिर हाथ बाँधकर कहा, “अन्नदाता, बाहर मन्त्रीश्वर विमलदेव शाह ड्यौढ़ियों पर हाज़िर हैं, वे हुजूर को सब बात बता सकते हैं। “तो विमल को यहाँ ले आ।" विमलदेव शाह राजा के निकट आ खड़े हुए। राजा ने पुछा, “विमल, यह सब क्या
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